1222—1222—1222—1222 |
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कभी मैं खेत जैसा हूँ, कभी खलिहान जैसा हूँ |
मगर परिणाम, होरी के उसी गोदान जैसा हूँ |
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मुझे इस मोह-माया, कामना ने भक्त बनवाया |
नहीं तो मैं भी अंतर्मन से इक भगवान जैसा हूँ |
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कभी इक जाति के कारण, कभी बस धर्म के कारण |
बँटा हर बार तब समझा कि हिन्दुस्तान जैसा हूँ |
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उजाले और कुछ ताज़ी हवा से घर संवारा है |
सखी तू एक खिड़की है, मैं रोशनदान जैसा हूँ |
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निराशा में नया पथ खोज लेता हूँ सफलता का |
किसी मासूम बच्चे की नवल मुस्कान जैसा हूँ |
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कभी जो आसरा अपना, कभी भगवन बताते थे |
वही बच्चें जताते हैं, किसी व्यवधान जैसा हूँ |
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नयन-जल-सा गिरा हूँ आज थोड़ा आचमन कर लो |
मैं समुचित अर्ध्य पावन प्रेम के उन्वान जैसा हूँ |
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ये दुनिया राजधानी के किसी सरकारी दफ्तर-सी |
जहाँ मैं सिर्फ हिंदी के किसी फरमान जैसा हूँ |
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मेरी गज़लें पढ़ो इक बार फिर आलोचना करना |
ग़ज़ल की शिष्ट दुनिया के नए प्रतिमान जैसा हूँ |
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(मौलिक व अप्रकाशित) © मिथिलेश वामनकर |
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Comment
आदरणीय मिथिलेश जी,
अति सुन्दर ! भावभीनी, बहुत ही सधी हुई ग़ज़ल ! साधुवाद एवं सद्भावनाएँ !
बहुत सधी हुई सुन्दर ग़ज़ल कही है आओ मिथिलेश जी कभी मैं खेत जैसा हूँ, कभी खलिहान जैसा हूँ |
मगर परिणाम, होरी के उसी गोदान जैसा हूँ..........वाह ! बहुत ख़ूबसूरती से संघर्ष वेदना और रीते रह जाने को व्यक्त किया है |
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मुझे इस मोह-माया, कामना ने भक्त बनवाया |
नहीं तो मैं भी अंतर्मन से इक भगवान जैसा हूँ...........मैं ही खुद को भजता हूँ..पर जानता ही नहीं की दो है ही नहीं |
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कभी इक जाति के कारण, कभी बस धर्म के कारण |
बँटा हर बार तब समझा कि हिन्दुस्तान जैसा हूँ.................बहुत प्रभावी शेर |
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उजाले और कुछ ताज़ी हवा से घर संवारा है |
सखी तू एक खिड़की है, मैं रोशनदान जैसा हूँ...सुन्दर |
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निराशा में नया पथ खोज लेता हूँ सफलता का |
किसी मासूम बच्चे की नवल मुस्कान जैसा हूँ............बहुत खूबसूरत |
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कभी जो आसरा अपना, कभी भगवन बताते थे |
वही बच्चें जताते हैं, किसी व्यवधान जैसा हूँ...........उफ़! आज की ये कड़वी सच्चाई |
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नयन-जल-सा गिरा हूँ आज थोड़ा आचमन कर लो |
मैं समुचित अर्ध्य पावन प्रेम के उन्वान जैसा हूँ.................पूर्ण समर्पण |
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ये दुनिया राजधानी के किसी सरकारी दफ्तर-सी |
जहाँ मैं सिर्फ हिंदी के किसी फरमान जैसा हूँ....................उफ़! ऐसी हालत ..इस कदर नजरअंदाज किया जाना :(( |
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मेरी गज़लें पढ़ो इक बार फिर आलोचना करना |
ग़ज़ल की शिष्ट दुनिया के नए प्रतिमान जैसा हूँ..............बहुत अच्छा इस शानदार ग़ज़ल पर दिली मुबारकबाद पेश है स्वीकार करें |
कभी इक जाति के कारण, कभी बस धर्म के कारण |
बँटा हर बार तब समझा कि हिन्दुस्तान जैसा हूँ बेहतरीन पंक्तियों के लिए बधाई स्वीकारें मिथिलेश जी |
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