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रौशन हो दिल हमारा, इक बार मुस्कुरा दो 

खिल जाय बेतहाशा, इक बार मुस्कुरा दो 

 

पलकों की कोर पर जो बादल बसे हुए हैं
घुल जाएँ फाहा-फाहा, इक बार मुस्कुरा दो

 

आपत्तियों के रुत की कुछ है अजीब फितरत
समझो अगर इशारा, इक बार मुस्कुरा दो

 

मालूम है तुम्हें भी कितना कठिन समय है
फिर भी तुम्हारा कहना, ’इक बार मुस्कुरा दो’ !

 

पत्थर के इस शहर में जो धुंध इस कदर है
मिट जायेगा अँधेरा, इक बार मुस्कुरा दो

 

निर्द्वंद्व सो रहा है आगोश में समन्दर
बहका रहा किनारा, इक बार मुस्कुरा दो

 

अभिव्यक्ति ज़िन्दग़ी की - दीपक तथा अँधेरा !
अब जी उठे उजाला, इक बार मुस्कुरा दो

 

स्वीकार हो निवेदन, अनुरोध कर रहा है
ये रोम-रोम सारा.. इक बार मुस्कुरा दो
********************

(मौलिक और अप्रकाशित)

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 5, 2015 at 2:39pm

आदरणीय सौरभ सर, आपकी गज़ले बड़े अन्तराल के बाद पढने मिलती है, आपकी ग़ज़ल रात में ही पढ़ ली थी, कई बार.... लेकिन प्रतिक्रिया अभी निवेदित कर रहा हूँ. बहुत ही शानदार ग़ज़ल हुई है. आपकी ग़ज़लों का अंदाज़, भाषा शैली और शब्द चयन चकित करता है. एक एक शब्द मोती की तरह पिरोया हुआ लगता है. इस विधा में संस्कृतनिष्ट हिंदी के शब्दों का चमत्कृत करता प्रवाह और फारसीनिष्ठ शब्दों से गठजोड़ अद्भुत होता है. कहीं भी प्रवाह बाधित नहीं होता. अलबत्ता पहली बार में समझ भी नहीं आता कि ऐसा प्रयोग किया गया है. आपकी ग़ज़ल पढ़ते हुए ख़याल आया कि हिन्दुस्तानी ग़ज़ल दिशा पर जितने आलेख या इंटरव्यूह पढ़े है, उनमे कहीं गई बातों के सापेक्ष आपकी ग़ज़लों को पढ़ते हुए, उन बातों की महत्ता समझ आती है. इस ग़ज़ल का प्रत्येक शेर प्रभावित करता हुआ दिल में उतरता है. 'इक बार मुस्कुरा दो' रदीफ़ ने उस पर चार-चाँद लगा दिए. इस लाजवाब ग़ज़ल पर शेर दर शेर दाद हाज़िर है-

रौशन हो दिल हमारा, इक बार मुस्कुरा दो
खिल जाय बेतहाशा, इक बार मुस्कुरा दो ........... बढ़िया मतला

पलकों की कोर पर जो बादल बसे हुए हैं
घुल जाएँ फाहा-फाहा, इक बार मुस्कुरा दो.......... वाह वाह.... फाहा फाहा का जवाब नहीं!

आपत्तियों के रुत की कुछ है अजीब फितरत
समझो अगर इशारा, इक बार मुस्कुरा दो................ नजाकत से शेर कहा है. आपत्तियों के रुत का बढ़िया प्रयोग.

मालूम है तुम्हें भी कितना कठिन समय है
फिर भी तुम्हारा कहना, ’इक बार मुस्कुरा दो’ !.......... लाज़वाब शेर

पत्थर के इस शहर में जो धुंध इस कदर है
मिट जायेगा अँधेरा, इक बार मुस्कुरा दो............. बढ़िया शेर

निर्द्वंद्व सो रहा है आगोश में समन्दर
बहका रहा किनारा, इक बार मुस्कुरा दो........... बहुत खूब... बढ़िया शेर

अभिव्यक्ति ज़िन्दग़ी की - दीपक तथा अँधेरा !
अब जी उठे उजाला, इक बार मुस्कुरा दो............ जीवन को परिभाषित करता करता हुआ बढ़िया मिसरा-ए-उला हुआ है. अगर जीवन की अभिव्यक्ति दीपक तथा अँधेरा है तो दीपक का उजाला आपके मुस्कुराने से है. शानदार

स्वीकार हो निवेदन, अनुरोध कर रहा है
ये रोम-रोम सारा.. इक बार मुस्कुरा दो ................ वाह वाह रोम-रोम में उतर गया ये शेर

इस ग़ज़ल से गुजरते हुए यकीन हुआ जाता है कि ऐसे शेर कहना आपके बूते की ही बात है. फिर भी अभ्यास के क्रम में मेरा प्रयास भी जारी है. इस मार्गदर्शन करती ग़ज़ल ने उस दिशा में प्रयास हेतु सघनता से मुझे प्रेरित किया है. वैसे मेरा प्रयास जारी भी है लेकिन अब उस प्रयास को सघन करने की आवश्यक महसूस हो रही है.

इस उत्कृष्ट ग़ज़ल की प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई और सादर नमन


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 5, 2015 at 1:29pm

क्या बात है , आदरनीय सौरभ भाई , बहुत बढिया ग़ज़ल हुई है , दिली बधाइयाँ स्वीकार करें । हरेक शे र की कहन मुग्धकारी है ।

आपत्तियों के रुत की कुछ है अजीब फितरत
समझो अगर इशारा, इक बार मुस्कुरा दो

 

मालूम है तुम्हें भी कितना कठिन समय है
फिर भी तुम्हारा कहना, ’इक बार मुस्कुरा दो’

निर्द्वंद्व सो रहा है आगोश में समन्दर
बहका रहा किनारा, इक बार मुस्कुरा दो   --- सिर्फ आप ही कह सकते हैं ऐसे शेर , दिल से पुनः बधाइयाँ इन अश आर के लिये ।

Comment by Sushil Sarna on November 5, 2015 at 1:21pm

निर्द्वंद्व सो रहा है आगोश में समन्दर
बहका रहा किनारा, इक बार मुस्कुरा दो

अभिव्यक्ति ज़िन्दग़ी की - दीपक तथा अँधेरा !
अब जी उठे उजाला, इक बार मुस्कुरा दो

वाह आदरणीय सौरभ जी वाह … कितने खूबसूरत अहसासों से लबरेज़ अशआर कहे हैं आपने .... ''अब जी उठे उजाला '' के प्रयोग ने मंत्रमुग्ध कर दिया है … इस दिल दिलकश ग़ज़ल की प्रस्त्तुति के लिए दिल से बधाई स्वीकार करें आदरणीय .... आपकी कल्पना की ऊंचाई को सादर _/\_

Comment by मनोज अहसास on November 5, 2015 at 6:00am
नमस्कार सर
इस खूबसूरत ग़ज़ल के लिए आपको बहुत बहुत बधाई
सादर

कृपया ध्यान दे...

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