तुम निष्ठुर हो …
तुम निष्ठुर हो तुम निर्मम हो
तुम बे-देह हो तुम बे-मन हो
तुम पुष्प नहीं तुम शूल नहीं
तुम मधुबन हो या निर्जन हो
तुम निष्ठुर हो …
तुम विरह पंथ का क्रंदन हो
तुम सृष्टि भाल का चंदन हो
तुम आदि-अंत के साक्षी हो
तुम वक्र दृष्टि की कंपन्न हो
तुम निष्ठुर हो …
तुम नीर नहीं समीर नहीं
तुम हर्ष नहीं तुम पीर नहीं
तुम हर दृष्टि से ओझल हो
तुम रखते कोई शरीर नहीं
तुम निष्ठुर हो …
तुम चलो तो सांसें चलती हैं
तुम रुको तो सांसें जलती हैं
आखिर समय तुम हो कैसे
तुममे तो सदियाँ पलती हैं
तुम निष्ठुर हो …
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सतविंदर कुमार जी रचना पर आपके स्नेहासक्त शब्द बरखा का दिल से शुक्रिया।
आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी रचना पर आपकी आत्मीय प्रशंसा से मेरे सृजन में एक नयी ऊर्जा का संचार हुआ है। इस मान के लिए आपका तहे दिल से शुक्रिया।
आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी रचना को आपके स्नेहिल शब्दों ने जो मान दिया है उसके लिए आपका तहे दिल से शुक्रिया।
एक और खूबसूरत रचना आपकी कलम से ,नमन आपके रचना कर्म को आदरणीय
रचना में बहुत सवेदना झलकती है | जो या तो समय के लिए या स्त्री के लिए | इस भावपूर्ण रचना के लिए बधाई
आदरणीय सौरभ सर प्रस्तुत रचना के प्रति आपका इतना स्नेह मेरे भावों को आंतरिक नेह नीर से सिंचित कर रहा है। प्रस्तुति पर इतनी गहन समीक्षा ने उसे एक नया आयाम दिया है। आपकी प्रखर सोच पर मैं नत मस्तक हूँ। किन शब्दों में आपका आभार व्यक्त करूँ , निःशब्द हूँ। आपके इस नेह का दिल की असीम गहराईयों से हार्दिक आभार। आपके आने से एक पुराना गीत याद आ गया :
कौन आया मेरे रचना के द्वारे
अपनी मीठी से झंकार लिए
पागल रचना इट उत देखे
नैनों में शृंगार किये
मेरे मनोभावों को कृपया अन्यथा न लेवें। अपना स्नेह बनाये रखें। सादर
कविताओं में भाव प्रवाह का सुन्दर उदाहरण है यह प्रस्तुति, आदरणीय सुशील सरनाजी. प्रस्तुति में आत्मीय उलाहनों का जो स्वरूप उभर कर सामने आया है और जैसी लयात्मकता इसे प्रवहमान कर रही है, वह आपके संवेदनशील हृदय से ही संभव था.
स्त्री संज्ञा मात्र न हो कर एक प्रवृति भी है जो वस्तुतः टूट कर प्रेम करने का बर्ताव है. इस बर्ताव में जितनी आत्मीयता हुआ करती है उतना ही अधिकार हुआ करता है. इस अधिकार में कोई समझौता स्वीकार्य नहीं. अन्यथा, आत्मीय की निष्ठुरता को इंगित कर अपनी अंतर्मुखी विवशता को जिस तरह से एक स्त्री प्रस्तुत कर सकती है वह अन्यत्र असंभव है. वह अन्यतम हुआ करता है. प्रेम की यह अत्यंत उच्च अवस्था हुआ करती है जहाँ स्त्री का एकाधिकार है ! पुरुष का क्यों नहीं ? क्यों कि पुरुष, ऐसी मान्यता है, अभिव्यक्ति का पर्याय हुआ करता है. जबकि स्त्रियाँ मुखर अभिव्यक्ति में जैसी गोपनीयता बरतती हैं वह काव्य-कौतुक और काव्य-चमत्कार का कारण हो जाया करती है.
आपकी प्रस्तुत रचना इसी तथ्य को सदयता से प्रस्तुत कर रही है, ऐसा मुझे प्रतीत हो रहा है. काश मैं ग़लत न होऊँ..
आदरणीय आपकी हालिया कविताओं में मानवीय अपनापन बोलने लगा है. यह एक शुभ संकेत है. हार्दिक शुभकामनाएँ
आदरणीय डॉ गोपाल जी भाई साहिब प्रस्तुति पर आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार। सर वस्तुतः ''समय'' के भाव को शब्दों में चित्रित करते समय जो विचार आये उन्हें मैंने प्रस्तुत करने का प्रयास किया। समय के इस चित्रण में मुझे इसका विरोधाभास भी प्रिय लगा। इसमें व्याखित इसका हर गुण चित्रण में निहित है फिर चाहे वो सकारात्मक हो या नकारात्मक हो। इस बाबत ये मेरा निजी विचार है। कृपया मेरे कथन को अन्यथा न लेवें। बहरहाल आपने रचना को आदर दिया ,सृजनकर्ता से प्यार किया आपका हार्दिक हार्दिक आभार।
आ० सरना जी - विरोधाभासी कविता है - तुम मधुबन हो या निर्जन हो--------------तुम चलो तो सांसे चलती है , फिर भी निष्ठुर , तुममे तो सदिया पलती हैं , फिर भी निष्ठुर -----------------मेरा आशय समझ गए होंगे सरना जी आखिर आप मनोरम कविता के धनी जो हैं . सादर
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