उस गाँव के छोटे से स्टेशन में कोई गाड़ी नहीं रूकती थी , एक दो पैसेंजर गाड़ियों को छोड़कर I वो और जस्सी ,धड धड करके मुहँ चिढ़ाकर निकलती गाड़ियों को खुले मुहँ और फैली आँखों से देर तक देखते रहते थे I उन गाड़ियों के ठन्डे डब्बे जो कांच से एकदम बंद होते थे ,जस्सी को बहुत लुभाते थे I उन दोनों सात आठ साल के बच्चों की आँखों में एक ही सपना हुआ करता था कि ठंडे डब्बे वाली गाड़ी में बैठना है एक दिनI
स्टेशन की बैंच में बैठा वो इन्हीं पुरानी यादों में खोया था I आज स्टेशन का नज़ारा कुछ और ही था I उस छोटे से स्टेशन ने इतनी रौनक आज से पहले कभी नहीं देखी थी Iपूरे स्टेशन ने मानों तिरंगा ओढ़ लिया था I गाँव से लोग तिरंगा लिए दौडे आ रहे थे स्टेशन की ओरI आज गाड़ी रुकने वाली थी यहाँ पर और ये काम भी जस्सी ने ही किया था I
धड धड करती रेल स्टेशन पर रुक गई I पूरी रेल ही कांच जड़े ठन्डे डब्बों की थी I वो बेंच से खड़ा हो गया I एक डब्बे का दरवाज़ा खुला और उसका यार जस्सी उर्फ़ शहीद जसविंदर सिंह तिरंगे में लिपटा चार कंधों पर शान से उतर रहा था उस बड़े से ठंडे डब्बे से जिसकी खिडकियों में सफ़ेद काँच जड़े थेI
मौलिक व् अप्रकाशित
Comment
कथा पर उत्साहवर्धन के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय Dr. Vijai Shanker जी सादर
आप कथा पर आईं और इसके मर्म का अनुमोदन किया ,हार्दिक आभार प्रिय राहिला जी
कथा पर प्रस्तुत होकर उत्साहवर्धन के लिए आपका तहे दिल से आभार आदरणीय तेजवीर सिंह जी
आदरणीया प्रतिभा जी, बहुत मार्मिक लघुकथा लिखी है आपने. दिल को छू गई. एक निवेदन ---//गाँव से लोग तिरंगा लिए दौडे आ रहे थे स्टेशन की ओरI// इस वाक्य से लघुकथा यहीं खुल जाती है या पाठक को कथा अंत का आभास होने लगता है अतः लघुकथा का अंत पूर्वाभास के कारण वैसा झटका नहीं देता जैसा अपेक्षित है. अतः इस वाक्य को केवल इतना ही रख सकते है- //गाँव से लोग दौडे आ रहे थे स्टेशन की ओरI//
सादर
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