आख़िरकार आज पिछले सत्रह सालों की साधना रंग ला ही गई, कसम से क्या–क्या पापड़ बेलने पड़े इस सचिवालय तक पहुँचने के लिए... नए सचिव साहब, मन ही मन सोचते हुए, कभी अपने खूबसूरत दफ्तर और कभी अपने स्वागत में प्रस्तुत फूलों के अम्बार को देख–देख कर मुस्करा रहे थे कि तभी, दरवाजे की घंटी बज उठी, एक आवाज आयी “क्या मैं अन्दर आ सकता हूँ ? “जी, फ़रमाइए।”
“जय हिन्द सर, मै आपका ‘वैयक्तिक सहायक’ हूँ, आपका इस नए कार्य क्षेत्र में स्वागत है, मेरी तरफ से ये तुच्छ भेंट स्वीकार कीजिये साहब।”
“ओह ! धन्यवाद आपका, पर आपको शायद जानकारी नहीं है, मैं किसी भी तरह का तोहफ़ा या अन्य कुछ स्वीकार नहीं करता।”
“अरे साहब आप गलत समझ रहे हैं, यह नाचीज़ आपको क्या दे सकता है? बल्कि बंदा आज जो कुछ भी है, आप ही की कृपा से है, आप शायद भूल गए मुझे, पर कोई बात नहीं इसे खोलकर तो देखिये, सर ।”
इस बात से सचिव महोदय थोड़ा आश्वस्त होकर बोले--“अच्छा आप ही दिखाइये, क्या लाए हैं ?”
“साहब ये देखिये, बस दो कलम हैं, एक लाल और एक हरी, अरे सचिव हैं आप, दिनभर में कई फाइलें आएँगी और आपको उनका निस्तारण करना पड़ेगा की नहीं?”
“हां बात तो सही है ‘पी.ए साहब’ आपकी ।”
“साहब कहकर क्यों शर्मिंदा कर रहें हैं सर? बस एक निवेदन है आपसे, जरा लाल कलम का उपयोग ज्यादा करियेगा।”
“पर वो क्यों?”
“सर, जब लाल कलम चलेगी तभी तो हरे ...हरे, मतलब हरे रंग की गुंजाईस रहेगी ।”
“सचिव साहब मुस्करा दिए, लगे लाल कलम घिसने और बोले वाह ! क्या फ्लो है यार, पुराने साथी लगते हो पर तुम्हारा नाम भूल रहा हूँ ।”
“हरिश्चंद्र नाम है मेरा, सर ।”
यह सब देखकर हरी कलम मुस्करा रही थी पर लाल कलम, स्याही की जगह अपना खून बहा रही थी ।
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
जब लाल कलम चलेगी तभी तो हरे....हरिश्चंद्र नाम है ।बहुत बढ़िया आदरणीय ,बेहतरीन तंज ।बहुत बहुत बधाई आदरणीय।
वाह आदरणीय वाह बहुत ही खूबसूरत गहन अर्थ लिए लघुकथा हुई है। हार्दिक बधाई स्वीकार करें।
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