सभी अपने पैने नख और दन्त अंदर समेटे पण्डित जी की श्राद वाली बात बैचेनी के साथ सुन रहे हैं।एक सुप्त ज्वालामुखी जो बिना वज़ह के अंदर ही अंदर धधक रहा है।साल भर में श्मशान वैराग्य खत्म हो चुका है और मानवीय विराग मुँह फाड़े निगलने को आतुर बैठा है। अभी अंतिम बंटवारा होना बाकि है।
" बड़े शहरों में ये सब करना मुश्किल है, न पण्डित मिलते हैं। न समय है।कब श्राद आये कब गए। मालूम ही नहीं चलता, मुझसे कोई उम्मीद मत रखना। " माँ और पिता का सबसे लाड़ला छोटा दो टूक बोला।
खिड़की से बाहर देखते मंझले को मानों इन बातों से कोई सरोकार नहीं था।
" हमें श्राद करने में भला क्या आपत्ति होगी।पर माँ का श्राद भी तो हमारे हिस्से में ही है।" बड़ी भाभी की आवाज़ का ज़र्रा ज़र्रा ये कह रहा था कि पिता का श्राद दूसरे करें।
"बड़े भाई का फ़र्ज़ होता है श्राद करना।हमें न सिखाओ।" मंझले की आवाज़ में सांप सी फ़ुफ़कार थी।
" माँ मेरे हिस्से में है।तुम दोनों फैसला कर लो बाबू जी के बारे में।"अब तक चुप बड़का बोला।
" जीते जी तो माँ- बाप के साथ बॉली बॉल का मैच खेलते रहे।मरने के बाद भी उन पुण्यात्माओं का बंटवारा ? ये मत भूलो हम सब भी उसी मार्ग के यात्री हैं ।"
"पण्डित जी ! ये हमारे घर का मामला है।"छोटा बल खाकर बोला।
" सच कहा, ये आप सभी का व्यक्तिगत मामला है, ...मुझे आप लोगों पर क्रोध नहीं दया आती है।" ये कह पण्डित जी घर से बाहर हो गए।
जानकी बिष्ट वाही
मौलिक एवम् अप्रकाशित
नॉएडा
Comment
श्राद्ध कर्म की ज़िम्मेदारी का भी बटवारा ,ह्रदय को चीरने वाला सत्य है ये पर होता ऐसा ही है पितरों के ऋण से भी उबरना चाहते हैं पर अपनी सांसारिक सहूलियतों के साथ ..तहे दिल से बधाई प्रेषित है आपको आदरणीया ,कथा के पंडित जी संवेदनशील हैं वरना अक्सर देखने में आता है कि पंडित खुद शार्टकट सुझाते हैं यजमान को
बहुत उम्दा , बधाई इस लघुकथा के लिए .. |
उफ्फ्फ कहाँ से आ गई इतनी संवेदन हीनता आज की पीठी में मरने के बाद भी बटवारा अन्दर तक बीध गई ये लघु कथा |
बहुत- बहुत बधाई जानकी जी |
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