22 22 22 22 22 22 ( बहरे मीर )
हम तो रह गये देख के मंज़र, हक्के बक्के
सारे मूछों वाले निकले ब्च्चे बच्चे
अजब न समझें, पूँछ दबी तो कुत्ता रोया
पूछ दबी तो रो देते हैं , अच्छे अच्छे
परिणामों की आशा चर्चा से मत करना
केवल बातों के निकलेंगे लच्छे लच्छे
हर दिमाग में छन्नी ऐसी लगी मिलेगी
सारे बाहर रह जाते हैं , सच्चे सच्चे
इक चावल का दाना देखो, कच्चा है गर
सारे चावल तुम्हें मिलेंगे , कच्चे कच्चे
हम कछुवे सा तरस रहे हैं,रन दो रन को
उनका है फरमान कि मारो छक्के छक्के
खून उबल कर गैरों पर जो बह आया था
जमे दिखे क्यूँ आज बताओ, थक्के थक्के
उसने भी तो हुक़्म उदूली की महफिल में
उसको भी तो कोई मारो धक्के वक्के
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरनीय जयनित भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ।
आदरणीय सुशील सरना भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका बहुत आभार ।
वाह वाह मजा आ गया ये ग़ज़ल पढके बहुत ही रोचक अंदाज में आज के सामयिक मुद्दों पर तंज कसा है आद० गिरिराज जी दाद स्वीकरें इस शानदार प्रस्तुति के लिए
आदरणीय गिरिराज जी भाई साहिब इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें।
आदरणीय समर भाई , हौसला अफज़ाई के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ।
आदरणीय महेन्द्र भाई , गज़ल की मुखर सराहना के लिये आपका हृदय से आभार ।
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