वागीश्वरी सवैया
वशीभूत जो सत्य औ स्नेह के हो, जहाँ में उसे ढूंढना क्या कहीं?
न ढूंढो उसे मन्दिरों-मस्जिदों में,शिवाले-शिलाखण्ड में भी नहीं!
जला प्रेम का दीप देखो दिलों में, मिलेगा तुम्हें वो सदा ही यहीं।
जहाँ नेह-निष्काम निष्ठा भरा हो, सखे! ईश का भी ठिकाना वहीं।।
दुर्मिल सवैया
दुख जीवन में अति देख कभी, मन को नर हे! न निराश करो।
रहता न सदा दुख जीवन में, तुम साहस से मन धीर धरो।।
रजनी उपरांत विहान नया, अँधियार घना मत देख डरो।
लघु-दीप जला नित ही तम में, हिय आश-प्रकाश नवीन भरो।।2।।
मौलिक एवं अप्रकाशित
रचना-रामबली गुप्ता
शिल्प वागीश्वरी सवैया=सात यगणों की आवृति एवं अंत में लघु-गुरु(122×7+12)Comment
आदरणीय रामबली गुप्ता जी सादर, दोनों ही सवैये बहुत सुंदर रचे हैं. आपकी सतत छंद रचनाओं की प्रस्तुति मन को आनंदित कर रहीं हैं. बहुत-बहुत बधाई. सादर.
बहुत खूब प्रयास हो रहा है आदरणीय रामबली जी. बहुत-बहुत बधाइयाँ इस प्रयास केलिए.
यदि आप सवैया के सूत्र लिख दें तो अन्यान्य पाठकों को रचना के विधान को समझने में सहूलियत तो होगी ही, वे शिल्प के सापेक्ष रचनाकर्म के तथ्य का आनन्द ले सकेंगे.
जैसे दुर्मिल सवैया के लिए [(सगण, ११२, लघु-लघु-गुरु, सलगा) X 8] लिखा जाना कई पाठकों केलिए सवैया को समझना आसान कर देगा. उसी तरह वागीश्वरी सवैया के लिए [(यगण, १२२, लगु-गुरु-गुरु, यमाता) X 7 + लघु-गुरु] लिखना वागीश्वरी के विधान को समझने में सहज कर देगा.
आपने देखा होगा, भारतीय छन्द विधान समूह में सवैया के पाठ में ऐसे ही सूत्र दिये गये हैं.
इसी तरह से ग़ज़लों को प्रस्तुत करने के क्रम में भी बहर के वज़न दिये जाने की परम्परा इस मंच पर शुरु हुई है. जो आज कई मंचों पर अपनायी जा रही है.
शुभेच्छाएँ
आदरणीय रामबली भाई , सवैयों के लिये हार्दिक बधाई , छंद के लिये मै अज्ञानी हूँ , लेकिन पढ़ के दुर्मिल सवैया बहुत अच्छा लगा ।
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