नई बहू राधिका को कुछ समय ही ससुराल में बीता था कि राधिका ने देखा कि उसके ससुर देवीप्रसादजी बडे़ शांत स्वभाव वाले, मिलनसार और कर्मठता की जीती-जागती तस्वीर हैं। ससुर जी के इस व्यक्तित्व ने राधिका के ऊपर गहरा प्रभाव डाला। देवीप्रसादजी की उम्र लगभग अस्सी से भी अधिक हो चुकी थी। लेकिन उनका शरीर चुस्ती -स्फूर्ति का बेजोड़ नमूना था। वे हमेशा घर का सारा काम करते, उठा-पटक करते, घर की चीजों को संभालते। दिन-दिन भर बगिया के झाड़- झंखड़ हटाते, पौधों को पानी देते कुल मिलाकर देवीप्रसाद राधिका को हमेशा काम करते दीखते। कभी थकते नहीं। राधिका से आखिर रहा नही गया। एक दिन बोल ही पडी़:
“बाबूजी, मैं जब से आपके घर में आई हूँ, आपको हमेशा काम करता ही पाया है। आप कुछ न कुछ करते ही रहते हैं आप थकते नहीं?”
देवीप्रसादजी चेहरे पर संतोष के भाव लाकर बोले:
“बेटी! तूने ठीक कहा। यह शरीर हमेशा कुछ करता रहे तो ही इसकी शोभा है, वरना आराम की दीमक लग गई तो यह सड़ जायेगा। मैं अपनी संतानों के सामने जीते जी इस शरीर को सड़ता हुआ नही देख सकता।”
राधिका को देवीप्रसादजी का आशय अच्छी तरह से समझ में आ गया था।
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
परमश्रद्धेय आदाब! लघुकथा पसंद आई
लेखन सार्थक हुआ, धन्यवाद!
बहुत अच्छी कथा ... कुछ नहीं करने से शरीर ही नहीं सोच में भी दीमक लग जाती है... हार्दिक बधाई प्रेषित है आदरणीय मोहम्मद आरिफ जी
बहुत अच्छी लघु कथा एक सार्थक सीख देती हुई बहुत बहुत बधाई आपको आद० आरिफ़ साहिब जी
आदरणीय Mohammed Arif साहिब प्रस्तुति में आपने वर्तमान को जीवंत करने का प्रयास किया है।
मैं अपनी संतानों के सामने जीते जी इस शरीर को सड़ता हुआ नही देख सकता।”गहन भावों की इस पंच लाईन ने कथा के भाव पक्ष को एक उठाव दिया है। इस संदेशात्मक लघुकथा की प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई।
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