221 1222 221 1222
तू यार बसा मन में दिलदार बसा मन में
हद छोड़ हुआ अनहद विस्तार सजा मन में
आकाश सितारों में जग ढूँढ रहा तुझको
तू मेघप्रिया बनकर है कौंध रहा मन में
झंकार रही पायल स्वर वेणु प्रवाहित है
आभास हृदय करता है रास रचा मन में
तू कृष्ण हुआ प्रियतम वृषभानु कुमारी मैं
तन काँप उठा मेरा अभिसार हुआ मन मे
आवेश भरा विद्युत है धार प्रखर उसकी
आलोक स्वतः बिखरा जब तार छुआ मन में
जब चाँद हँसा करता जब रात मधुर होती
तू नींद चुरा लेता सौ द्वंद मचा मन में
रस सोम पिला तूने सब लूट लिया मेरा
‘शृंगार’ कहाँ अब है ‘निर्वेद’ धँसा मन में
मेघप्रिया /घनप्रिया - बिजली
(मौलिक /अप्रकाशित )
(मौलिक व अप्रकाशित )
Comment
आ० निगम जी , आवेश भरी विद्युत ही सही है सादर
आदरणीय गोपाल नारायन जी, अति उत्तम गजल ने मुग्ध कर दिया. बधाइयाँ
आवेश भरा विद्युत इस पंक्ति में मुझे शंका है कि भरी होना चाहिए, कृपया समाधान करने का कष्ट करेंगे
आ. बड़े भाई गोपाल जी , सलाह का मान रखने के लिये आपका आभार ।
आ० अनुज , बहुत सही मार्ग दिखाया आपने . मैं इसका संशोधन अवश्य करूंगा . सादर .
आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , बहुत अच्छी गज़ल हुई है , दिल से बधाइयाँ स्वीकार करें ।
सौदामिनि को आपनी = 22 11 लिया है मेरे खयाल से ये ग़लत है , 222 लिया जाना सही रहेगा । सोच के देखियेगा ।
रस सोम पिला तूने सब लूट लिया मेरा
‘शृंगार’ कहाँ अब है ‘निर्वेद’ धँसा मन में
वाह आदरणीय डॉ. गोपाल जी भाई साहिब ... मन मोहते भावों की अप्रतिम प्रस्तुति। इस अद्भुत शाब्दिक सौंदर्य को निखरती ग़ज़ल के लिए दिल से बधाई स्वीकार करें।
वाह वाह आदरणीय डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव सर बहुत खूब, बेमिसाल ग़ज़ल कही है आपने बहुत बहुत बधाई आपको
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