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 एक तू ही थी

जो बचपन में

अपने जोड़े पैसों से

मुझे खिलाती थी

मेरी मनपसंद चीज

और झूठ बोलकर मुझे

बचाती थी पिता के प्यार से

फिर एक दिन तू उड़ गयी

कही दूर किसी अजानी जगह

और फिर बनाया उसे

अपनी कर्म भूमि

आजीवन पूजती रही बट-वृक्ष

और सींचती रही अपने लगाये पौधे

बिताया अपना सारा जीवन

पत्रों से भेजती रही

मेरे लिए राखी

मैं बाँध लेता था उन्हें

आँखें नम हो जाती थे स्वतः

पर आज तू इतनी दूर है 

जहाँ से नहीं आ सकता

कोई पत्र, कोई राखी, कोई सन्देश

आंख आज भी नम है  

और कलाई सूनी है 

क्या वहां नहीं होता रक्षाबंधन

या फिर तुझे नहीं आती

मेरी याद

 

(अप्रकाशित मौलिक)

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Comment by Ashok Kumar Raktale on August 22, 2016 at 10:17pm

वाह ! वाह ! बहुत ही मार्मिक रचना हुई है एक दृश्य सा खींच आया है आदरनीय डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव साहब. सादर.

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 22, 2016 at 8:55pm
बहुत सुन्दर रचना हुई है आदरणीय । बधाई ।
Comment by JAWAHAR LAL SINGH on August 22, 2016 at 6:48pm

बस कल्पना ही की जा सकती है या जो भुक्तभोगी है वही जान सकता/ समझ सकता है कवि के भाव को ..आदरणीय गोपाल नारायण जी, मर्मस्पर्शी रचना! 

Comment by vijay nikore on August 22, 2016 at 10:51am

// क्या वहां नहीं होता रक्षाबंधन

या फिर तुझे नहीं आती

मेरी याद//

अति मार्मिक ! अति सुन्दर ! मन को भा गई आपकी रचना ।

हार्दिक बधाई, आदरणीय गोपाल नारायन जी।

Comment by Naveen Mani Tripathi on August 20, 2016 at 9:03am
अत्यंत सुन्दर रचना आदरणीय
Comment by Shyam Narain Verma on August 19, 2016 at 3:03pm
इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई ..सादर 
Comment by मनोज अहसास on August 19, 2016 at 2:43pm
बहुत ही भावपूर्ण
सादर
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 18, 2016 at 8:42pm

कृपया संद्शोधन कर लें ------पिता  के प्यार से  ----के स्थान पर -------पिता  की मार से ------ सादर .

कृपया ध्यान दे...

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