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भाई रामबली गुप्ता जी, आप अनुस्वार और चन्द्रविन्दु के भेद को मेटने पर क्यों तुल गये हैं ? यह तो लापरवाही है भाई. करूँगा को करूंगा लिखना किसी तौर पर सचेत अभ्यासकर्मियों को शोभा नहीं देता.
रचनाकर्म के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ.
//खडी बोली हिन्दी में औ, पे का प्रयोग नहीं होता //
यह उक्ति कहाँ से उद्धृत की गयी है ? दूसरे, खड़ी बोली का वह कौन-सा स्वरूप है जिसमें इसके प्रति आग्रह है ? छान्दसिक रचनाओं में तत्सम शब्दों के प्रति एक आग्रह अवश्य होता है, जो एक मान्यता के वशीभूत ही है, न कि किसी विधान के धरातल पर स्थापित सत्य. अन्यथा, हिन्दी भाषा का जो प्रचलित स्वरूप सर्वमान्य हुआ है, उसमें सहयोगी भाषाओं के शब्द उदारता से स्वीकार्य होते हैं.
न हम आज सितारेहिन्द साहब का अनुसरण कर रहे हैं न लल्लू लाल जी का. बल्कि भारतेन्दु के बताये मार्ग का अनुसरण कर रहे हैं जिसे महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने तार्किकता के खाद-पानी से पोषित-पल्ल्वित किया है.
सादर
आ० राम बली जी - आपकी हिन्दी गजल बड़ी मोहक है . आपसे एक उम्मीद मैं और करता हूँ कि खडी बोली हिन्दी में औ, पे का प्रयोग नहीं होता ,अगर इस पर आपने अधिकार कर लिया तो फिर तो बल्ले बल्ले .
बहुत ही सुंदर अनुपम अनुकरणीय ग़ज़ल आदरणीय
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