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गीत ........अब हृदय में वेदनाओं का सृजन है |

अब हृदय में वेदना ही का सृजन है,
भीड़ में कहीं खो गया यह मेरा मन है ।


पतझड़ों सी हर खुशी लुटने लगी है,
सच, बहारों ने उजाड़ा फिर चमन है।


जब बहारों ने किया स्वागत हमारा,
प्रीत-पथ के पांव में कंटक चुभन है।


अब उगेंगे पेड़ जहरीली जमीं पर,
आदमी का विषधरों जैसा चलन है।


ये हवा तूफान की रफ्तार सी है,
इसमें हर मासूम के अरमां दफन हैं।


याद रहता है कहाँ, कोई किसी को,
हालात से है जूझता हर तन और मन है ।


ये कहाँ की आदतें सी पड़ गयीं हैं,
हर ठहाके में शामिल रहता रुदन है।


छोड़ कर जाने को मेरा मन ना चाहे,
ज़िन्दगी का नाम ही आवागमन है।


आभा

अप्रकाशित एवं मौलिक 

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Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 6, 2016 at 10:15pm

पतझड़ों सी हर खुशी लुटने लगी है,
सच, बहारों ने उजाड़ा फिर चमन है।


जब बहारों ने किया स्वागत हमारा,
प्रीत-पथ के पांव में कंटक चुभन है।


अब उगेंगे पेड़ जहरीली जमीं पर,
आदमी का विषधरों जैसा चलन है।

बहुत खूब आदरणीया आभा जी |

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 21, 2016 at 6:47pm

आ० आभा जी , मैं आ० रामबली जी के कथन से सहमत हूँ . सादर .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 21, 2016 at 6:45pm

आदरणीया आभा जी , रचना के लिये हार्दिक बधाइयाँ प्रेषित हैं , स्वीकार करें । आदरणीय रचना मुझे लगता है गीत शिल्प की शर्तें पालन नही कर पा रहीं है । आदरणीया प्राची जी की बातों का ख्याल करें ।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 21, 2016 at 4:13pm

बहुत खूबसूरत भाव प्रवण रचना आ० आभा जी 

सभी द्विपदियाँ खूबसूरत भाव समाहित करती हैं , लेकिन कहन को और कसने की और शिल्प को भी और साधने की आवश्यता तो है....

पतझड़ों सी हर खुशी लुटने लगी है,
सच, बहारों ने उजाड़ा फिर चमन है।.......बहारें चमन को कैसे उजाड़ देंगी???? आँधियाँ तूफ़ान होना चाहिए न 

ये हवा तूफान की रफ्तार सी है,
इसमें हर मासूम के अरमां दफन हैं।............यहाँ 'हैं' बहुवचन प्रयुक्त हो गया जबकि द्विपदियों का अंत 'है' से हुआ है 

*वैसे हर मासूम एक वचन हो गया 

इसमें हर मासूम का अरमां दफ़न है....सही होगा 

बाकी भी छोटी छोटी कुछ और चीज़ें हैं, जिन्हें साध कर इस प्रस्तुति में चार चाँद लग जाएंगे . 

शिल्प ग़ज़ल के ज्यादा समीप है..आप इसे ग़ज़ल का रूप आसानी से दे सकती हैं.

सस्नेह 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on September 21, 2016 at 2:54pm

आ. आभा जी अच्छी रचना है बधाई आपको

Comment by रामबली गुप्ता on September 21, 2016 at 8:14am
सुंदर सृजन है आद० आभा जी किन्तु मुझे यह गीत के स्थान पर ग़ज़ल के जैसा लग रहा है। दूसरी बात कई स्थानों पर प्रवाह में अटकाव है। यदि आप इसे 2122 2122 2122 के वह्र में लिखें तो बेहतर हो।सादर
Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on September 20, 2016 at 11:40am
अब उगेंगे पेड जहरीली जमीं पर
आदमी का विषधरों जैसा चलन है ।
वाह्ह्ह आदरणीयाआभा जी बहुत ही सुन्दर। बधाई स्वीकार करें । सादर ।
Comment by Samar kabeer on September 18, 2016 at 2:44pm
मोहतरमा आभा जी आदाब,बहुत अच्छा लगा आपका गीत,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
Comment by डॉ पवन मिश्र on September 18, 2016 at 10:15am

वाह आद. आभा जी। बहुत सुंदर

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