अब हृदय में वेदना ही का सृजन है,
भीड़ में कहीं खो गया यह मेरा मन है ।
पतझड़ों सी हर खुशी लुटने लगी है,
सच, बहारों ने उजाड़ा फिर चमन है।
जब बहारों ने किया स्वागत हमारा,
प्रीत-पथ के पांव में कंटक चुभन है।
अब उगेंगे पेड़ जहरीली जमीं पर,
आदमी का विषधरों जैसा चलन है।
ये हवा तूफान की रफ्तार सी है,
इसमें हर मासूम के अरमां दफन हैं।
याद रहता है कहाँ, कोई किसी को,
हालात से है जूझता हर तन और मन है ।
ये कहाँ की आदतें सी पड़ गयीं हैं,
हर ठहाके में शामिल रहता रुदन है।
छोड़ कर जाने को मेरा मन ना चाहे,
ज़िन्दगी का नाम ही आवागमन है।
आभा
अप्रकाशित एवं मौलिक
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पतझड़ों सी हर खुशी लुटने लगी है,
सच, बहारों ने उजाड़ा फिर चमन है।
जब बहारों ने किया स्वागत हमारा,
प्रीत-पथ के पांव में कंटक चुभन है।
अब उगेंगे पेड़ जहरीली जमीं पर,
आदमी का विषधरों जैसा चलन है।
बहुत खूब आदरणीया आभा जी |
आ० आभा जी , मैं आ० रामबली जी के कथन से सहमत हूँ . सादर .
आदरणीया आभा जी , रचना के लिये हार्दिक बधाइयाँ प्रेषित हैं , स्वीकार करें । आदरणीय रचना मुझे लगता है गीत शिल्प की शर्तें पालन नही कर पा रहीं है । आदरणीया प्राची जी की बातों का ख्याल करें ।
बहुत खूबसूरत भाव प्रवण रचना आ० आभा जी
सभी द्विपदियाँ खूबसूरत भाव समाहित करती हैं , लेकिन कहन को और कसने की और शिल्प को भी और साधने की आवश्यता तो है....
पतझड़ों सी हर खुशी लुटने लगी है,
सच, बहारों ने उजाड़ा फिर चमन है।.......बहारें चमन को कैसे उजाड़ देंगी???? आँधियाँ तूफ़ान होना चाहिए न
ये हवा तूफान की रफ्तार सी है,
इसमें हर मासूम के अरमां दफन हैं।............यहाँ 'हैं' बहुवचन प्रयुक्त हो गया जबकि द्विपदियों का अंत 'है' से हुआ है
*वैसे हर मासूम एक वचन हो गया
इसमें हर मासूम का अरमां दफ़न है....सही होगा
बाकी भी छोटी छोटी कुछ और चीज़ें हैं, जिन्हें साध कर इस प्रस्तुति में चार चाँद लग जाएंगे .
शिल्प ग़ज़ल के ज्यादा समीप है..आप इसे ग़ज़ल का रूप आसानी से दे सकती हैं.
सस्नेह
आ. आभा जी अच्छी रचना है बधाई आपको
वाह आद. आभा जी। बहुत सुंदर
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