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ग़ज़ल.... अजीब मंजर है बेखुदी का

121 22 121 22 121 22 121 22

न वक्त का कुछ पता ठिकाना न रात मेरी गुज़र रही है ।
अजीब मंजर है बेखुदी का , अजीब मेरी सहर रही है ।।

ग़ज़ल के मिसरों में गुनगुना के , जो दर्द लब से बयां हुआ था ।
हवा चली जो खिलाफ मेरे , जुबाँ वो खुद से मुकर रही है ।।

है जख़्म अबतक हरा हरा ये , तेरी नज़र का सलाम क्या लूँ ।
तेरी अदा हो तुझे मुबारक , नज़र से मेरे उतर रही है ।।

मिरे सुकूँ को तबाह करके , गुरूर इतना तुझे हुआ क्यूँ ।
तुझे पता है तेरी हिमाकत , सवाल बनकर अखर रही है ।।

न वस्ल को तुम भुला सकी हो, न हिज्र को मैं भुला ही पाया ।
यहाँ रकीबों की वादियों में , तेरी ही खुशबू बिखर रही है ।।

हमारे दिल में हमी से पर्दा , गुनाह कुछ तो छुपा गई हो ।
है दिल का कोई नया मसीहा , तू जिसके दम पे निखर रही है ।।

किसी तबस्सुम की दास्ताँ पे , फ़ना हुआ है गुमान जिसका ।
है कत्ल खाने में जश्न इसका, कज़ा की महफ़िल गुजर रही है ।।

हुजूर चिलमन से देखते हैं , गजब का मौसम है कातिलाना ।
ये इश्क भी क्या अजब का फन है नज़र नज़र पे ठहर रही है ।।

तमाम रातो के सिलसिलों में , खतों से अक्सर पयाम आया ।
जो चोट मुझको मिली थी तुझसे वो फ़िक्र बनकर उभर रही है ।।

----- नवीन मणि त्रिपाठी

मौलिक अप्रकाशित

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Comment by Naveen Mani Tripathi on December 13, 2016 at 4:24pm
आ0 सुरेन्द्र नाथ सिंह कुश क्षत्रप जी तहेदिल से शुक्रिया ।
Comment by Naveen Mani Tripathi on December 13, 2016 at 4:23pm
आ0 अनीता जी आभार । ओबीओ में स्वागत है ।
Comment by नाथ सोनांचली on December 12, 2016 at 2:13pm
आदरणीय नवीन मनी त्रिपाठी जी सादर अभिवादन, बहुत बढ़िया गजल कहीं आपने, दाद के साथ हर शैर पर मुबारकबाद कबूल फरमाए।
Comment by Anita Maurya on December 10, 2016 at 10:12am

वाह.... बहुत खूब ..

Comment by Naveen Mani Tripathi on December 9, 2016 at 9:47am
आ0 मिथिलेश सर सादर आभार

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 8, 2016 at 11:48pm

आदरणीय नवीन जी, बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने. शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं. सादर 

Comment by Sushil Sarna on December 8, 2016 at 6:21pm

न वक्त का कुछ पता ठिकाना न रात मेरी गुज़र रही है ।

अजीब मंजर है बेखुदी का , अजीब मेरी सहर रही है ।।

ग़ज़ल के मिसरों में गुनगुना के , जो दर्द लब से बयां हुआ था ।

हवा चली जो खिलाफ मेरे , जुबाँ वो खुद से मुकर रही है ।।

गज़ब के अशआर कहे हैं सर आपने। ..... खूबसूरत अहसासों की इस ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय।

Comment by Naveen Mani Tripathi on December 8, 2016 at 12:40am
आ0 कबीर सर सादर नमन सर ।शुतुरगुरबा दोष को सर मैंने अपनी मूल प्रति में आपके मार्ग दर्शन का पालन कर लिया है । बहुत बहुत आभार सर । आपके मार्ग दर्शन में अत्यंत कीमती जानकारी प्राप्त हो जाती है ।
Comment by Samar kabeer on December 7, 2016 at 9:07pm
ऐब-ए-तनाफ़ुर के बारे में आपने सही फरमाया,लेकिन मेरा फ़र्ज़ था कि मैं आपको आगाह कर दूँ,इसलिये बता दिया ।
Comment by Naveen Mani Tripathi on December 7, 2016 at 5:33pm
बहुत बहुत आभार सर । मैंने कहीं पढ़ाथा कि यदि शायर ग़ज़ल पढ़कर शेर को निभा ले जाता है तो ऐबे तनाफुर कोई दोष न के बराबर ही समझा जाता है । वैसे भी यह दोष अरब संस्कृति की देन है जहाँ उच्चारण में अस्पष्टता की वजह से बना दिया गया था । वर्तमान परिवेश में विशेष परिस्थितियों में ही ऐब तनाफुर को महत्त्व दिया जाता है । उदाहरण के रूप में हम हिंदी भाषी दिन भर ऐबे तनाफुर में सैकड़ो बार बात करते रहते हैं ।
जैसे
हम काम कर रहे हैं ।
वह भाग गए ।
रुपया याद है । आदि आदि ।

सर जो मुझे लगा वह बात मैंने आपके सामने रख दी है आप बड़े शायर हैं मुझे यकीन है आप इस विषय पर अपना भी व्यक्तिगत मत रखेंगे । आशा यह भी है कि की आप शिष्य की बात को अन्यथा न
लेते हुए किसी समाधान की दिशा की ओर प्रेरित भी करेंगे । सादर नमन सर ।

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