जानती हूँ वायदों के बंध होते हैं जटिल
मुक्त हों हर बंध से मैं प्यार इतना चाहती हूँ...
ताज़गी की आड़ में कितनी थकन थी, क्या कहूँ
खिड़कियाँ सारी खुलीं थीं पर घुटन थी, क्या कहूँ
अब मिले हर स्वप्न को विस्तार इतना चाहती हूँ...
हर ख़ुशी मुझको मिली है आप जबसे मिल गए
आस के जो फूल मुरझाए हुए थे, खिल गए
गूँजता हर पल रहे मल्हार इतना चाहती हूँ...
आप तक आवाज़ पहुँचे मैं पुकारूँ जब कभी
आप भी जब-जब पुकारें मैं चली आऊँ तभी
प्यार का विश्वास हो आधार इतना चाहती हूँ...
ख़ामियाँ मुझमें कई हैं, रह सकूँ पर बिन डरे
आपसे हर बात दिल की कह सकूँ जब मन करे
ज़िंदगी पर आपकी अधिकार इतना चाहती हूँ...
एक तट पर मैं खड़ी हूँ एक तट पर आप हैं
नाव खेते ही भँवर उठने लगेंगे श्राप हैं
बस लहर थामे रहे व्यवहार इतना चाहती हूँ...
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
बहुत सम्यक सुझाव आदरणीय सौरभ जी
सादर धन्यवाद
आपो० प्राची जी , सुन्दर गीत है , श्राप की जगह शाप अधिक उपयक्त होगा शायद, सादर .
इस गीति-प्रतीति की भावदशा विह्वल कर गयी आदरणीया. अधिकार का सात्विक स्वरूप निजता को परिपुष्ट करता हुआ भी कितना नम्र है ! भावोद्गार में समर्पण अपने उच्च स्तर पर होता हुआ भी अन्तःकरण की सत्ता के लिए सादर विशिष्टता की अपेक्षा रखता है. गीत आजके तथाकथित नारी-विमर्श जन्य उन्मुक्तता की खोखली वाचालता पर परस्पर सामंजस्य के अर्थ प्रतिस्थापित करता हुआ मनोरम बन पड़ा है. इस निरभिमानी किन्तु अदम्य साहसी गीत के लिए हार्दिक बधाइयाँ और अशेष शुभकामनाएँ, आदरणीया प्राची जी.
जानती हूँ वायदों के बंध होते हैं जटिल ...
मुक्त हो हर बंध से यह प्यार इतना चाहती हूँ. ..
इसे यों करे न --
जानती हूँ ज़िन्दग़ी के बंध होते हैं जटिल
मुक्त हों हर बंध से मैं प्यार इतना चाहती हूँ...
ऐसा करने से सात्विक प्यार की असीम पहुँच और उसके नैतिक हेतु का पता चल सकेगा.
शुभ-शुभ
आदरणीया प्राची जी ..बहुत ही शानदार गीत , हर बंद लाजबाब
ताज़गी की आड़ में कितनी थकन थी, क्या कहूँ
खिड़कियाँ सारी खुलीं थीं पर घुटन थी, क्या कहूँ
अब मिले हर स्वप्न को विस्तार इतना चाहती हूँ.
\एक तट पर मैं खड़ी हूँ एक तट पर आप हैं
नाव खेते ही भँवर उठने लगेंगे श्राप हैं
बस लहर थामे रहे व्यवहार इतना चाहती हूँ... ये दो बंद बहुत ज्यादा पसंद आये सादर
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