1212 1122 1212 22
ये जिंदगी है अभी तक नहीं दुआ पहुँची ।
खुदा के पास तलक भी न इल्तजा पहुँची।।
गमो का बोझ उठाती चली गई हँसकर ।
तेरे दयार में कैसी बुरी हवा पहुँची ।।
अजीब दौर है रोटी की दास्ताँ लेकर ।
यतीम घर से कोई माँ कई दफ़ा पहुची ।।
तरक्कियों की इबारत है सिर्फ पन्नों तक ।
है गांव अब भी वही गाँव कब शमा पहुँची ।।
यहां है जुल्म गरीबी में टूटना यारो ।
मुसीबतों में जफ़ा भी कई गुना पहुँची।।
है फरेबों का चमन मत गुहार कर बन्दे ।
के रिश्वतों के बिना कब कोई सदा पहुँची ।।
वो बिक गई थी सरेआम रात महफ़िल में ।
सुना है घर पे कई बार दिल रुबा पहुँची ।।
ये भूंख रोज जलाती है ख्वाहिशें देखो ।
जम्हूरियत है ये साहब नहीं हया पहुंची ।।
बड़ा बेदर्द जमाना है उस को क्या देगा ।
हुई तमाम वफायें मगर ख़ता पहुँची ।।
ठगा गया है ये इंसान फिर सियासत से ।
नई हयात के बदले नई क़ज़ा पहुंची ।।
--नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
Comment
भाई नवीन मणि जी, आपकी ग़ज़ल से गुजरा. मतला ही खटक गया. आगे कई शेर हैं जिन पर ढेर सारी बातें की जा सकती हैं. लेकिन, भाई, आप लोगों से इस विधा की बारीकी पर बात करने में असहज महसूस करता हूँ. आप अन्यथा न लेंगे. लेकिन बातें असहज नहीं हैं. कई विसंगतियाँ हैं इस ग़ज़ल में. ेबस इतना समझ लें, ग़ज़ल दो पंक्तियों में कुछ भी कह दी गयी इबारत नहीं होती. न रदीफ़-काफ़िया का इम्तिहान हुआ करती हैं अन्यथा न लें तो, कृपया अभ्यासरत रहें.
शुभेच्छाएँ
आदरनीय नवीन भाई , ग़ज़ल के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ । बाक़ी सब कुछ आदरणीय समर भाई कह ही चुके हैं , उनकी बातों का ख्याल कीजियेगा ।
आदरणीय नवीन मणि जी गजल के प्रयास के लिये बधाई आदरणीय समर साहब के कहने के बाद कुछ नहीं रह जाता आपकी गजल के हवाले से समर साहब की बेशकीमती राय से हम भी वााकिफ हए आपका और समर साहब का पुन: धन्यवाद
आदरणीय त्रिपाठी जी .. बहुत बढ़िया प्रयोग के लिए हार्दिक बधाई....
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