चला गया ...
हवा
शयन कक्ष के परदों से
खेलती रही
टेबल पर पड़ी मैग्ज़ीन के पन्ने
वायु वेग से
बार बार
फड़फड़ाते रहे
तन्हा से पड़े
काफी के मग
खाली होते हुए भी
अपने में
बहुत कुछ समेटे थे
समेटे थे
अपने अंदर
अकेलेपन से बातें करते
वो क्षण
जो काफी के मग को
अधरों से लगाए
कनखियों से निहारते हुए
आँखों ने आँखों में
बिताये थे
समेटे थे
अपने अंदर
अव्यक्त
तृषित अधरों के
अंतर्द्वंद के
स्पंदन को
हृदय की कंदराओं में
जीते वो क्षण
जो
किसी की अनुपस्थिति को
जीवंत किये हुए थे
समेटे थे
अपने अंदर
अव्यक्त
कसमसाती
प्रेमानुभूति के वो क्षण
जो स्वप्नभाल पर
स्मृति चन्दन से बने
अनुपम भित्ति चित्र को
शयन कक्ष के
हिलते हुए परदों के पीछे छोड़
कोई
फिर आने का
वादा कर
चला गया
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
आदरणीय तेज वीर सिंह जी प्रस्तुति में निहित भावों को अपनी सहमति से पोषित करने का हार्दिक आभार।
आदरणीय सतविंदर जी प्रस्तुति को अपनी आत्मीय प्रशंसा से अलंकृत करने का हार्दिक आभार। आपके द्वारा इंगित त्रुटि टंकण दोष के कारण है। इसे भी मैं अभी संशोधित कर पुनः प्रेषित कर रहा हूँ। इस हेतु आपका तहे दिल से शुक्रिया।
आदरणीय समर कबीर साहिब आपने प्रस्तुति को समय दिया इसके लिए आपका तहे दिल से शुक्रिया। आपके मार्गदर्शन से मैं लाभान्वित हुआ। आपके सुझावानुसार मैंने रचना में संशोधन कर दिया है। आशा है भविष्य में भी ऐसा ही मार्गदर्शन मिलता रहेगा। आपके अमूल्य सुझाव एवम मार्गदर्शन का हार्दिक आभार।
हार्दिक बधाई आदरणीय सुशील सरना जी।बेहतरीन प्रस्तुति।
आदरणीय समर कबीर साहिब सृजन के भावों को अपना आत्मीय मान देने का हार्दिक आभार। आपका कथन सही है लेकिन पवन चल रहा था तो नहीं कहेंगे चल रही ही कहेंगे , .... मेरे विचार से ये प्रयोग सही है ... शेष वरिष्ठ जन इस बारे में अधिक बता सकते हैं।
आदरणीय Mohammed Arif साहिब प्रस्तुति में निहित भावों को आत्मीय मान देने का दिल से आभार।
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