मापनी -१२२२ १२२२ १२२
कोई रिश्ता निभाया जा रहा है
मुझे फिर से बुलाया जा रहा है
भले ही खिड़कियाँ हैं बंद घर की,
मगर परदा उठाया जा रहा है
पड़ीं हैं नींव में चुपचाप ईंटे,
भले बोझा बढाया जा रहा है
अभी कुछ शांत हैं लहरें वहाँ पर,
उन्हें पत्थर दिखाया जा रहा है
नहीं है पास उनके एक छत भी,
महल का गीत गाया जा रहा है
बिठाना था जिन्हें पलकों पे’ हर पल,
उन्हें घर से भगाया जा रहा है
जरा सा हाथ सूरज का हटा क्या,
कि मुझसे दूर साया जा रहा है
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय बसंत शर्मा जी अच्छी ग़ज़ल हुई है बहुत बहुत बधाई आपको
जरा सा हाथ सूरज का हटा क्या,
कि मुझसे दूर साया जा रहा है
वाह बहुत सुंदर आदरणीय बसंत जी ... इस बेहतरीन अहसासों वाली ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें।
आदरणीय Ravi Shukla जी हौसलाफजाई के लिए बहुत बहुत धन्यवाद आपका
आदरणीय योगराज प्रभाकर जी, आपने मेरी गजल को समय दिया और त्रुटि की ओर ध्यानाकर्षित किया, बहुत बहुत धन्यवाद आपका, यह टंकन त्रुटि ही है सादर , सुधर कर देता हूँ.
आदरणीय Mohammed Arif जी हौसलाफजाई के लिए बहुत बहुत धन्यवाद आपका
आदरणीय बसंत जी बढि़या गजल कही आपने मुबारक बाद कुबूल करें अरकान आदरणीय योगराज भाई जी ने बताए है वही है टंकण त्रुटि हो तो सुधार लीजिये । सादर
ग़ज़ल के अरकान दोबारा जांच लें आ० बसंत कुमार शर्मा जी, १२२२ १२२२ १२ की बजाय १२२२ १२२२ १२२ है शायद.
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