चलो
जिन्दगी को
ज़रा करीब से देखें
दर्द को ज़रा
महसूस करके देखें
क्या खबर
कोई लम्हा
अपना सा मिल जाए कहीं
चलो
उस लम्हे को
जरा जी कर देखें//
जिन चेहरों पे हंसी
बाद मुद्दत के आई है
जिन आँखों में
अब सिर्फ और सिर्फ तन्हाई है
जिस आंगन में
धूप अब भी
सहमी सहमी आती है
उस आंगन के
प्यासे रिश्तों से
जरा रूबरू होकर देखें
चलो!
जिन्दगी को
जरा जी कर देखें//
हमारे अहसास
किसी रिश्ते के
मुहताज तो न थे
दिल के जज़्बात
धड़कनों से
अनजान तो न थे
फिर क्यूँ
सफ़र
नज़र से नज़र का
अधूरा सा लगता है
आज भी
क्यूँ
तेरे चेहरे पे
मेरा नाम
खुदा सा लगता है
चलो
वक्त के पन्ने
फिर कभी पलट के देखेंगे
आँखों के दर्पण में
अपना अपना
समर्पण देखेंगे
मुड़ के देखें
या न देखें
पर
तू जैसी भी है
चल तुझे
ऐ ज़िंदगी !
जरा जी कर देखें//
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय Mahendra Kumar जी सृजन के भावों को आत्मीय मान देने का हार्दिक आभार।
बढ़िया अतुकांत कविता है आ. सुशील सरना जी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
आदरणीय समर कबीर साहिब, आदाब। .. सृजन को अपनी शीरीं अल्फ़ाज़ों से मान देने का हार्दिक आभार। आपके द्वारा इंगित त्रुटियों को संशोधित कर मैं रचना को पुनः प्रेषित कर रहा हूँ। आपके अमूल्य सुझाव का तहे दिल से शुक्रिया।
आदरणीय मो.आरिफ साहिब प्रस्तुति को अपनी मधुर प्रतिक्रिया से प्रशंसित करने का तहे दिल से शुक्रिया।
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन को अपने स्नेहिल शब्दों से शोभित करने का दिल से आभार।
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी सृजन के भावों को आत्मीय मान देने का हार्दिक आभार।
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