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मापनी २२१२ २२१२ २२१२  

 

आ  तो सही  एक  बार मेरे गाँव में

अद्भुत अतिथि सत्कार मेरे गाँव में

 

हर वक्त  रहते  हैं खुले सबके लिए

सबके दिलों के  द्वार  मेरे  गाँव  में

 

तालाब  नदियाँ और पनघट की छटा

है  प्रीति  का  विस्तार  मेरे  गाँव  में

 

सम्मान  पूरा  है  बुजुर्गों   का  यहाँ

होते   नहीं  वे  भार  मेरे   गाँव  में

 

सब बाँटते मिल साथ में सुख और दुख   

हो  जीत  या  फिर  हार  मेरे गाँव में

"मौलिक एवं अप्रकाशित" 

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Comment by बसंत कुमार शर्मा on July 13, 2017 at 10:06am

जी आदरणीय  Samar kabeer जी आपने सही कहा, हौसला अफजाई के लिए दिल से शुक्रिया 

Comment by बसंत कुमार शर्मा on July 13, 2017 at 10:05am

आदरणीय Ravi Shukla जी , आपके स्नेह को सादर नमन, टंकन त्रुटि को सुधार  लेता हूँ.

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 13, 2017 at 9:57am
गाँव की यादें ताजा करती इस खूबसूरत गजल के लिए हार्दिक बधाई।
Comment by khursheed khairadi on July 13, 2017 at 7:20am
आदरणीय बसंत सर सुन्दर ग़ज़ल हुई है ।बहुत बहुत बधाई। सादर
Comment by Mahendra Kumar on July 12, 2017 at 8:48pm

बढ़िया ग़ज़ल है आ. बसंत जी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 12, 2017 at 7:07pm

क्या रंग है क्या शायरी क्या बात है

आ जाइये  इक बार मेरे गाँव में

Comment by Samar kabeer on July 12, 2017 at 6:12pm
जनाब बसंत कुमार शर्मा जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा हुआ है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
मतले के बारे में जनाब रवि जी का सुझाव उत्तम है ।
Comment by Ravi Shukla on July 12, 2017 at 5:42pm

आदरणीय बसंत कुमार जी बहुत बढि़या अशआर है आपकी गजल के दिली बधाई हाजिर है । मतले मे एक बार को इक बार होना चाहिये था शायद टंकण त्रुटि है ।

सम्मान  पूरा  है  बुजुर्गों   का  यहाँ

होते   नहीं  वे  भार  मेरे   गाँव  में इस शेर के लिये अलग से बधाई लीजिये । सादर

Comment by बसंत कुमार शर्मा on July 12, 2017 at 3:39pm

आदरणीय Mohammed Arif जी ह्रदय से आभार आपका 

Comment by Mohammed Arif on July 12, 2017 at 11:34am
आदरणीय बसंत कुमार शर्मा जी आदाब, लाजवाब गाँव की गरिमा को रेखांकित करती ग़ज़ल । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।

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