122--122 / 122--122
मुहब्बत मुहब्बत मुहब्बत लिखेंगे,
अलावा नहीं कुछ हिमाकत लिखेंगे !
नहीं कल्पना ही लिखेंगे यहाँ अब,
लिखेंगे तो बस हम हकीकत लिखेंगे!
लिखेंगे नहीं हम कभी झूठ बातें,
सलामत अगर हैं सलामत लिखेंगे!
मुहब्बत ही करते रहें हैं यहाँ जो ,
ग़ज़ल दर ग़ज़ल हम मुहब्बत लिखेंगे!
ग़ज़ल जब लिखेंगे तुम्हारे लिए तो,
कसम से तुम्हें खूबसूरत लिखेंगे!
इशारा हमें जो किया आपने है ,
इसे हम मुहब्बत की दावत लिखेंगे!
गये छोड़कर के मिरे पास में दिल,
मुहब्बत की उसको वसीयत लिखेंगे!
नहीं लिख सका गर मुहब्बत की बातें ,
खुदा की अजी हम इबादत लिखेंगे!
"मौलिक व अप्रकाशित"
© हरि प्रकाश दुबे
Comment
गज़ल अच्छी लगी, आनन्द आ गया। हार्दिक बधाई।
आदरनीय हरि प्रकाश भाई , बढिया गज़ल कही है .. दिल से बधाइयाँ स्वीकार करें । बाक़ी बात आ. रवि भाई कह हे चुके हैं , खयाल कीजियेगा ।
अच्छा भाई जी धन्यवाद् |
आदरणीय समर भाई जी आदाब , यहाँ गर झूठी बाते करते है तो मात्राओं की गणना किस तरह से होगी यह तो बदल जाएगी न | कृपया मार्गदर्शन दे | सादर|
आदरणीय हरि प्रकाश जी गजल का बेहतर प्रयास हुआ है मुहब्बत को केंद्र बना कर बढि़या अशआर कहे है आपने मुबारक बाद पेश करते है ।
इशारा हमें जो किया आपने है , इसके अल्फाज के क्रम को वाक्य विन्यासके अनुसार देखें तो इशारा हमें आपने जो किया है करें तो कैसा रहेगा ।
गये छोड़कर के मिरे पास में दिल, इस मिसरे में छोड़ कर के यहां कर के बाद के असहज सा लग रहा है इसे भी बदल सकते है आप
मेरे पास दिल वो गये छोड़कर जो जैसे विकल्प पर विचार कर सकते है
लिखेंगे नहीं हम कभी झूठ बातें, इसमिसरे में आदरणीया कल्पना जी सही कह रही है आप झूठी बाते कह सकते है
इसी तरह आखिरी शेर में भी कुछ बेहतर की गुंजाइश है । सादर
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