221 2121 1221 212
नफरत कहाँ कहाँ है मुहब्बत कहाँ कहाँ
मैं जानता हूँ होगी बग़ावत कहाँ कहाँ
गर है यक़ीं तो बात मेरी सुन के मान लें
लिखता रहूँगा मैं ये इबारत कहाँ कहाँ
धो लीजिये न शक़्ल मुआफ़ी के आब से
मुँह को छिपाये घूमेंगे हज़रत कहाँ कहाँ
कल रेगज़ार आशियाँ, अब दश्त में क़याम
ले जायेगी मुझे मेरी फित्रत कहाँ कहाँ
कर दफ़्न आ गया हूँ शराफत मैं आज ही
सहता मैं शराफत की नदामत कहाँ कहाँ
दानिशवराने कौम की बातें न पूछिये
जुल्मत कदे में ढूँढे हैं जुल्मत कहाँ कहाँ
आखें खुली जो रखते कभी पूछते नहीं
''ये ग़म कहाँ कहाँ ये मसर्रत कहाँ कहाँ "
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय गिरिराज जी ,
बेहतरीन ग़ज़ल हुई है. दाद के साथ मुबारकबाद कबूल फरमायें।
आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , गज़ल की साराहना के लिये हार्दिक आभार आपका ।
आहा अनुज बहुत ही बेहतरीन गजल और लाजवाब गिरह का शेर ---बधाई आप्को .
आदरणीय सुरेन्द्र भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।
आदरनीय अजय भाई , आभार किस बात ? आभार तो मुझे पकट करना है , आपकी गज़ल पर उपस्थिति के लिये । आपका हार्दिक आभार
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