समीक्षार्थ.........छंद-- तांटक (एक प्रयास)
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हिन्दी का घटता रुझान पर , भाषा में गहराई है
हिंदी क्यूँ ऐसे लगती ज्यूँ वृदाश्रम की माई है
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नव पीढ़ी ने हिंदी में अब, लिखना पढ़ना छोड़ा है
परिवर्तन ऐसा आया दिल ,अंग्रेजी से जोड़ा है
निज भाषा का परचम लहराने का करते हैं दावा
मंचों से ही है चिंतन अंग्रेजी पर बोलें धावा
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अंग्रेजी स्टेटस सिंबल है, हिंदी दिखती काई है
हिंदी क्यूँ ऐसे लगती ज्यूँ वृदाश्रम की माई है
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साहित्य दर्पण समाज का फिर भी इसे उखाड़ा है
हिंदी दिवस मनाकर के बस पल्ला सबने झाड़ा है
ब्रांड बनाते हैं अपना फिर, चकाचोंध में गाते है
अंतहीन शोहरत की भूख, का दमखम दिखलाते है
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गौरवशाली साहित्य पर पेंशन की परछाई है
हिंदी क्यूँ ऐसे लगती ज्यूँ वृदाश्रम की माई है
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कालखंड की भाषा शैली , अवधि औ ब्रज की बोली
खड़ी बोली और मैथिलि ने ,कानों में मिसरी घोली
शब्दशास्र की बूढी डंडी से गर सबको हांकेंगे
रचनाकार बदल के रस्ता अंग्रेजी में झांकेंगे
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दीप प्रज्वलन माल्या अर्पण, परिचर्चा की खाई है
हिंदी क्यूँ ऐसे लगती ज्यूँ वृदाश्रम की माई है
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कुदरत का बदलाव नियम है ,क्लिष्ट न होने दो भाषा
पाठकगण के मन भी जागे,सरल सहज की अभिलाषा
सन्नाटों को गुंजित कर दे,शंखनाद रचनाओं का
हरसिंगार हिंदी का हो ज्यूँ ,सन्निपात उल्काओं का
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मातृभाषा ये अपनी है अपनों की बड़ी सताई है
हिंदी क्यूँ ऐसे लगती ज्यूँ वृदाश्रम की माई है
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"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय अलका जी , हिन्दी दिवस पर बहुत अच्छी गीत रचना की है , हार्दिक बधाइयाँ । कहीं कहीं लय बाधित लगी , देखियेगा ।
आ. अलका जी हिन्दी दिवस पर गीत के भाव अच्छे बन पड़े हैं बहुत बहुत बधाई आपको
आदरणीय Mohit mishra (mukt) जी आपका धन्यवाद कि आपको मेरी रचना पसंद आई , आभार सादर ।
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