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ग़ज़ल...ज़िन्दगी मुस्कुराने लगी शाम से-बृजेश कुमार 'ब्रज'

मुतदारिक सालिम मुसम्मन बहर
212 212 212 212
आपकी याद आने लगी शाम से
ज़िन्दगी मुस्कुराने लगी शाम से

गुनगुनाती हुई चल रही है हवा
शाम भी गीत गाने लगी शाम से

चाँदनी रात से क्यों करें हम गिला
हर ख़ुशी झिलमिलाने लगी शाम से

बड़ रही प्यार की तिश्नगी हर घड़ी
हसरतें सिर उठाने लगी शाम से

ताल बेताल थे सुर बड़े बेसुरे
रागनी वो सुनाने लगी शाम से

आस दिल में लिये चल पड़ी बावरी
रात सपने सजाने लगी शाम से
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

Views: 984

Comment

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 12, 2017 at 9:20pm
आपका हार्दिक अभिनन्दन एवं आभार आदरणीया..
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 11, 2017 at 5:15pm

सुंदर ग़ज़ल हुई है आदरणीय बधाई स्वीकारें |

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 10, 2017 at 11:20pm
सादर नमन स्वीकारें आदरणीय लक्ष्मण धामी जी..
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 10, 2017 at 11:18pm
आदरणीय समर सर प्रणाम स्वीकार करें..हवा स्त्रीलिंग है इसलिए मुझे लगा कि 'चल रही' काफी है स्त्रीत्व के बोध के लिए..लेकिन आप कह रहे हैं तो ये उचित नहीं होगा..मैं सुधार करता हूँ..
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 10, 2017 at 11:14pm
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय अजय जी..ये शेर मुझे भी कुछ कमजोर सा लग रहा है..आपने मुझे मौका दिया कि में इस विषय में सोचूँ..चौथे शेर को भी दुरुस्त करता हूँ..सादर प्रणाम..
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 10, 2017 at 11:10pm
आदरणीय सुरेन्द्र जी स्नेहिल टिप्पड़ी के लिए हार्दिक आभार..प्रणाम
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 10, 2017 at 8:05pm
बहुत खूब
Comment by Samar kabeer on October 10, 2017 at 2:57pm
जनाब बृजेश कुमार'ब्रज'साहिब आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
'गुनगुनाते हुये चल रही है हवा'
चूँकि 'हवा'स्त्रीलिंग है, इसलिये इस मिसरे को इस तरह करना उचित होगा :-
'गुनगुनाती हुई चल रही है हवा'
Comment by Ajay Tiwari on October 10, 2017 at 12:43pm

अच्छी ग़ज़ल कही है, आदरणीय बृजेश जी, 

आस दिल में लिये ढल रही बावरी
रात सपने सजाने लगी शाम से

रात तो आधी रात के बाद ढलती है शाम से तो चढ़ती है .

चौथे शेर में एक टाइपिंग की गलती है 'बढ़' जगह 'बड़' हो गया है .

शुभकामनाएं 

Comment by नाथ सोनांचली on October 10, 2017 at 4:30am
आपकी याद आने लगी शाम से
ज़िन्दगी मुस्कुराने लगी शाम से
क्या खूबसूरत मतला जनाब
आद0 बृजेश कुमार ब्रज जी सादर अभिवादन, उम्दा ग़ज़ल कही आपने, दाद और मुबारकबाद पेश करता हूँ।

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