महाकवि कालिदास ने मेघ का मार्ग अधिकाधिक प्रशस्त करने के ब्याज से प्रकृति के बड़े ही सूक्ष्म और मनोरम चित्र खींचे है, इन वर्णनों में कवि की उर्वर कल्पना के चूडांत निदर्शन विद्यमान है जैसे - हिमालय से उतरती गंगा के हिम-मार्ग में जंगली हवा चलने पर देवदारु के तनों से उत्पन्न अग्नि की चिंगारियों से चौरी गायों के झुलस गए पुच्छ-बाल और झर-झर जलते वनों का ताप शमन करने हेतु यक्ष द्वारा मेघ को यह सम्मति देना कि वह अपनी असंख्य जलधाराओं से वन और जीवों का संताप हरे .
मेघ को पथ निर्देश करता यक्ष आगे कहता है कि हिम प्रदेश में जहाँ हवाओं के भरने से सूखे बांस बज उठते है और किन्नरियाँ उनके साथ कंठ मिलाकर शिव के त्रिपुर विजय का यशोगान करती हैं वहां यदि कंदराओं में प्रतिध्वनित होता हुआ तुम्हारा गर्जन मृदंग की उस तान से मिल गया तो शिव- पूजा का पूरा ठाठ जम जाएगा .
यक्ष कहता है, आगे तुम्हें क्रौंच पर्वत मिलेगा. वहां राजहंसो के आवागमन का एक विवर है. जिसे भगवान् परशुराम ने पर्वत फोड़कर बनाया था. उसके भीतर झुककर प्रवेश करने पर तुम ऐसे दिखोगे जैसे बलि-बंधन के समय भगवान विष्णु का उठा हुआ सांवला चरण शोभित हुआ था . यहाँ से आगे बढ़कर तुम उस विश्रुत कैलाश पर्वत पर पहुंचोगे जो इतना शुभ्र है की देवांगनायें उसका उपयोग दर्पण के रूप में करती हैं. इस पर्वत के धारों के जोड़ दशानन रावण द्वारा कैलास उठाने और उसे झिंझोड़ने से ढीले पड़ गए हैं. इस कैलाश में देव वनिताएँ अपने जड़ाऊ कंगन में लगे हुए हीरों की चोट से तुम्हे भेदकर जल की फुहारें उत्पन्न करेंगी, तुम्हे कष्ट भी होगा पर तुम धूप में उनके साथ जल-क्रीडा के बंधन में बंध जाओगे. यदि उससे शीघ्र छुटकारा न मिले तो तुम अपने मेघनाद से उन्हें प्रकम्पित कर देना. कैलाश पर तुम नानाप्रकार से अपना मन बहलाना और मानसरोवर का जल पीना . इंद्र के अनुचर और अपने सखा ऐरावत को प्रसन्न करना . कल्पवृक्ष को अपनी बाहुलता से झकझोरना यहाँ पर तुम कैलाश की गोदी में अवस्थित यक्षराज कुबेर की अलकापुरी को न पहचान सको ऐसा असंभव है. पावस में जब अलका के तुंग महलों पर तुम आच्छादित हो जाओगे तब तुम्हारे प्रखर जल-धार की क्षिप्रता में वह ऐसी सुहावनी लगेगी जैसे मोतियों के जालों से गुंथे घुंघराले कुंतल वाली कोई प्रमदा नारी हो .
मेघदूत’ में यक्ष को मार्ग निर्देश करने का प्रसंग यहीं समाप्त होता है. इसके साथ ही स्वाभाविक रूप से काव्य के प्रथम खंड ‘पूर्वमेघ’ का भी पर्यवसान भी हो जाता है. अब मेघ अलकापुरी पहुँच चुका है. आगे यक्ष को अपनी प्रिया तक क्या सन्देश पंहुचाना है उसकी कथा ‘उत्तरमेघ‘ खंड में वर्णित है .
‘उत्तरमेघ’ अलकापुरी के भव्य वर्णन से प्रारम्भ होता है . इसका पर्याप्त उल्लेख इस लेख में पहले हो चुका है. यक्ष के गौरवशाली महल की चर्चा भी हो चुकी है. यक्ष कहता है कि हे चतुर मेघ ! मेरे द्वारा बताये गए लक्षणों से तुम मेरे महल को पहचान पाओगे इसमें संदेह नहीं है. यद्यपि वह घर मेरे वियोग से उसी प्रकार कांतिहीन हो गया होगा जैसे सूर्य के अभाव से कमल अपनी शोभा खो बैठता है .
यक्ष निर्देश करता है कि कैलाश से अलकापुरी में सपाटे के साथ नीचे उतरने के लिए तुम मकुने हाथी के समान रूप बनाकर क्रीडा-पर्वत के सुन्दर शिखर पर बैठना और अपनी विद्युत् दृष्टि महल के अन्दर डालना. वहां तुम्हे छरहरे देह वाली, उन्नत यौवन वाली, नुकीले दांत वाली, पके बिम्ब फल सी अधरों वाली , क्षीण-कटि वाली , चकित मृगी की सी चितवन वाली, गंभीर नाभि वाली, श्रोणि-भार के कारण अलसित गमना और श्रीफल भर से झुकी हुयी मेरी पत्नी दिखाई देगी, जो अलकापुरी की सन्नारियों में ब्रह्मा की प्रथम कृति के रूप में जानी जाती है.
यक्ष के अनुसार उसकी पत्नी या तो देव-पूजा में संलग्न होगी या विरहाकुल अवस्था में निज भावों के अनुसार उसका चित्र-लेखन करती होगी या फिर पिंजर-बद्ध मैना से प्रिय स्वर में पूंछती होगी कि क्या मेरे स्वामी जिनकी तू भी दुलारी थी, कभी तुझे याद आते हैं ? या फिर मलिन वस्त्र धारण किये गोद में वीणा रखकर अपने अश्रु से भीगे वीणा- तारों को किसी प्रकार व्यवस्थित कर मेरे नामांकित पद को गाने की इच्छा से प्रवृत्त होगी और अपनी ही बनाई स्वर-विधि को वह भूलती सी जान पड़ेगी या फिर मेरे वियोग के एक वर्ष की अवधि में अब कितने माह शेष बचे हैं. इसकी गणना में वह देहरी पर चढ़ाये पूजा के फूलों को उठा-उठा कर भूमि पर रखती होगी अथवा रति सुखों का स्मरण करती हुयी वह मेरे शीघ्र मिलने की कल्पना का रस चखती होगी. इस प्रकार दिन में तो किसी प्रकार उसका मन बहल जाता होगा पर रात में वह अत्यधिक शोकाकुल हो जाती होगी. अर्धरात्रि को जब भूमि –शयन का व्रत लिए हुए वह उचटी नीद में लेटी हो. तब उस पतिव्रता को मेरा सन्देश और भरपूर सुख देने के लिए तुम मेरे महल की गोख में बैठकर पहले उसके दर्शन करना .
कथाक्रम में आगे यक्ष शाप-पूर्व संयोग की सुखद स्थितियों की स्मृति कर मेघ को अपनी मनोदशा से अभिज्ञ कराता है. वह कहता है कि यह वर्णन जो मैं कर रहा हूँ, ऐसा नहीं है कि पत्नी के सुहाग से स्वयं को बडभागी मानता हुआ मैं व्यर्थ की बाते कर रहा हूँ. मेरे कथन की सत्यता तुम स्वयं मेरे महल में जाकर जब साक्षात् देखोगे तब तुम्हारी आँखें भी स्वतः बड़ी-बड़ी बूंदे टपकाने लगेंगी . मेरा कुशल सन्देश लेकर जब तुम उसके पास पहुंचोगे तब उस मृगनयनी का बायां नेत्र ऊपर की और फड़कता हुआ ऐसा प्रतीत होगा जैसे सरोवर में मछली के फड़फड़ाने से हिलता हुआ नीलकमल शोभित होता है. उस समय यदि वह नीद का सुख ले रही हो तो मेघनाद मत करना अपितु एक पहर तक उसके जगने की बाट जोहना क्योंकि संभव है स्वप्न में मेरे साथ गाढ़ आलिंगन के लिए कंठ में डाला हुआ उसका बाहुपाश अचानक खुल जाये . इसलिए थोड़ा रुक कर जब तुम फुहार उड़ाती हुई शीत हवाओं से उसे जगाओगे तब वह मालती की नव-कलिका सा सहसा खिल उठेगी और तुम्हे गवाक्ष में बैठा देख विस्मय से अपने नेत्र विस्तारित करेगी. तब अपनी प्रिया विद्युत् को अपने में ही छिपाकर बड़े ही धैर्य से मेरा सन्देश उससे कहना कि हे सौभाग्यवती ! मैं तुम्हारे पति का प्रिय सखा मेघ हूँ और उसके हृदयगत संदेशों को लेकर तुम्हारे पास आया हूँ. जब तुम इतना कहोगे तब वह उतना ही सजग और उत्कंठित हो जायेगी जितना जगज्ज्ननी सीता हनुमान को अपने सामने पाकर हुयी थीं. तब वह उत्फुल्ल होकर तुम्हारा स्वागत करेगी और सदेश सुनने के लिये एकाग्रचित्त हो जायेगी .
अपनी प्रिया के विरह में आकुल यक्ष अपना सन्देश देते हुए कहता है कि हे सुकुमारी, रामगिरि के आश्रमों में गया तुम्हारा वह पति अभी जीवित है और वह तुम्हारी कुशल जानना चाहता है. तुम्हारा वह सहचर तुम्हारे साथ एकाकार होना चाहता है परन्तु बैरी विधाता ने उसके लौटने का मार्ग अवरुद्ध कर रखा है, अतः वह अपने काल्पनिक संकल्पों के माध्यम से ही तुम्हारे भीतर प्रविष्ट हो रहा है, हे प्रिये मैं प्रियंगु-लता में तुम्हारा वपुष , मृगों के नेत्र में तुम्हारे अपांग , चंद्रमा मे मुख-छवि, मोर-पंखों में केश–विन्यास और नदी की इठलाती लहरों में भ्रू-चांचल्य की समता तलाशता हूँ किन्तु मानिनी, तुम्हारी जैसी सुन्दरता किसी में नहीं .
यक्ष अनुरोध करता है की हे मेघ, प्रिया से कहना कि जब मैं पर्वत की चट्टानों पर गेरू से प्रेम में रूठी हुयी उस कुपिता के चरणों में स्वयं को अर्पित, चित्रित करना चाहता हूँ , तब आखों में आंसू उमड़ कर मेरी दृष्टि बाधित कर देते हैं और मैं चित्र भी पूरा नहीं कर पाता. निष्टुर विधाता को चित्र में भी हमारा संयोग स्वीकार्य नही है. कभी स्वप्न में जब वह मुझे मिल जाती है तब मैं उसे अपने निष्ठुर भुजपाशों में भर लेने के लिए बाहे शून्य में फैलाता हूँ. मेरी इस करूण दशा को देखकर वनदेवी की आँखों में मोटे-मोटे अश्रु कण उमड़ आते है जो तरु पल्लवों पर मोती की तरह गिरकर बिखर जाते हैं . हिमालय की जो हवायें दक्षिण से देवदारु के वृक्षों के मुड़े हुए पल्लवों को खोलते और उनके फुटाव से बहते हुए गोंद की सुगंध लेकर आती हैं, मैं उनका आलिंगन यह मानकर करता हूँ कि वे तुम्हारे शुभांगों को छूकर आयी होंगी .
यक्ष का सन्देश यह भी है कि बहुत सारी कल्पनाओं में अपने मन को उलझाकर किसी प्रकार स्वयम को धैर्य देकर मैं इस आशा में अपने जीवन की रक्षा कर पा रहा हूँ कि अब शीघ्र ही हमारा मिलन होगा. अतः प्रिये ! तुम भी अपना धैर्य मत छोड़ना. जब भगवान् विष्णु शेष-शैय्या त्याग कर उठेंगे तब मेरे शाप का अंत होगा. इसलिये बचे हुए शेष चार माह तुम आँखें बंद कर किसी प्रकार काट लेना. फिर कार्तिक माह में जब हमारा मिलन होगा तब विरहावधि में जो भी मंसूबे हमने बांधे हैं उन्हें हम सोल्लास पूरा करेंगे .
प्रिय मेघ, अभिज्ञान के रूप में यह गुप्त प्रसंग भी कहना कि एक बार जब तुम मेरे साथ आलिंगनबद्ध सोयी थी तब अकस्मात रोती हुयी जाग उठी थी और जब मैंने बार-बार इसका कारण पूंछा तो तुमने कहा था कि हे छलिया, आज स्वप्न में मैंने तुम्हे किसी दूसरी नारी के साथ रमण करते देखा. इस एक पहचान से ही प्रिये समझ लेना कि मैं सकुशल हूँ और मेरे प्रति अपना विश्वास बनाये रखना . इस प्रकार हे मेघ, पहली बार वियोग का ताप सहने वाली उस दु:खिनी अपनी प्रिय भावज को धीरज देना और फिर मेरे पास उसका प्रति-सदेश लेकर वापस आना ताकि प्रातःकालीन कुमुद की भाँति मेरे शिथिल शरीर को कुछ सांत्वना मिल सके . हे मित्र इस विरही पर दया कर उसका यह अनुचित अनुरोध भी मानना और कार्य पूर्ण करना. फिर मनचाहे स्थलों पर विचरना . मेरी ईश्वर से यह प्रार्थना है कि तुझे कभी भी अपनी मेघ- प्रिया विद्युत् का विछोह न सहना पड़े .
मेघदूत’ की कथा यही समाप्त होती है. इस समूची काव्य परिकल्पना में एकल सम्वाद योजना है. यह स्वगत-भाषण तो नहीं है. पर कुछ-कुछ एकालाप जैसा है. यक्ष मेघ को अपना मित्र बनाकर उसे मार्ग निर्देश करता है कि वह उसकी प्रिया तक जाकर यक्ष का सन्देश पहुंचाए . स्वाभाविक है कि इस मनोदशा पर मेघ की तो कोई प्रतिक्रिया नहीं हो सकती. अतः इस एकालाप को समझने के लिए हम वियोग की मान्य दस दशाओं पर विचार करे तो पाएंगे कि उनमे ‘प्रलाप’ भी एक दशा है. कितु मेघदूत प्रलाप भी नहीं है, क्योंकि प्रलाप में विरह को भले-बुरे का संज्ञान ही नही रहता और वह कुछ भी अंट-शंट बकता है. पर यहाँ यक्ष की योजना सुविचारित है और वह पूर्ण चेतना में है. अतः मेघदूत कवि की कल्पना से प्रसूत यक्ष का एकालाप मात्र ही कहा जा सकता है . बाद में संस्कृत और हिन्दी में इसी परंपरा से अनेक एकालापों की सुष्ठु योजनाये हुयी हैं .
(मौलिक/अप्रकाशित)
Comment
आ० अजय जी आपकी साहित्यिक रूचि को नमन
आ० समर कबीर जी आपका आभार
आदरणीय गोपाल नारायण जी,
कथा वास्तु की इस इस प्रस्तुति में एक मौलिक रचना का आस्वाद है. इसीलिए मैंने पिछली बार इसे पुनर्रचना कहा था. बीच बीच में आपके द्वारा की गयी टिप्पणियों ने इसे और उपादेय बना दिया है.
हार्दिक शुभकामनाएं.
सादर
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