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जिधर देखो उधर मेहनत कशों की - सलीम रज़ा रीवा

1222 1222 1222 1222

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जिधर देखो उधर मिहनत  कशों की ऐसी हालत है-

ग़रीबों  की  जमा अत पर अमीरों की क़यादत है

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मुक़द्दर ले के आया है न जाने कैसी बस्ती में-

नज़र आती नहीं मुझको किसी के दिल में चाहत है

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कहीं दहशत कहीं अस्मत फरोशी है कहीं नफ़रत-

ज़माने में जिधर देखो क़ियामत ही क़ियामत है

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ग़रीबों के घरों में रहबरों देखो कभी जा कर-

वहां खुशियां नहीं हैं सिर्फ फ़ाक़ा और गुरबत है

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न जाने किस शनावर के मुक़द्दर में लिखा मोती-

समुन्दर में भला मालूम किस को कितनी दौलत है

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रज़ा जो मिल नहीं पाया न कर उसका कोई शिकवा-

ये क्या कम है तुझे शुहरत मिली उसकी बदौलत है

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"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment

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Comment by SALIM RAZA REWA on November 8, 2017 at 8:33am
आ.लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर जी,
आपकी नज़रे इनायत के लिए शुक्रिया.
Comment by SALIM RAZA REWA on November 8, 2017 at 8:32am
जनाब तस्दीक साहिब,
ग़ज़ल पर आपकी नवाज़िश के लिए आपका दिली शुक्रिया.
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 4, 2017 at 6:14am
आ. भाई सलीम जी, बेहतरीन गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
Comment by Tasdiq Ahmed Khan on November 3, 2017 at 4:00pm
जनाब सलीम साहिब ,उम्दा ग़ज़ल हुई है मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
Comment by SALIM RAZA REWA on November 2, 2017 at 9:20pm

"जनाब froz 'sahr'  साहब ,

ग़ज़ल में आपकी शिरक़त और हौसला अफ़जाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया।"

Comment by SALIM RAZA REWA on November 2, 2017 at 8:08pm

आली जनाब समर साहब,
आपकी ग़ज़ल पर नज़रे इनायत के लिए शुक्रिया,
आपकी मशविरे की तरफ़ मुखातिब होते हैं,
..
1..जनाब ये आपकी बात एकदम सही है शोहरत, मेहनत नहीं इसे मिहनत, शुहरत लिखते हैं ,
दोनों अरबी के अल्फाज़ है.
और अरबी में इसे मिहनत, शुहरत ही लिखते हैं आपकी ये बात तस्लीम है
2..पर सर जहाँ तक हमें मालूम है कोई भी शायर अपने ग़ज़ल में सिर्फ़ शोहरत,मेहनत का ही इसत्माल करते हैं
क्यूंकि ये अल्फाज़ ही आम हैं,
जनाब हमने शुहरत, मिहनत का इस्तेमाल ग़ज़ल में कहीं नहीं पढ़ा इसलिए जानते हुए भी हम लिख न सके इसके लिए माफ़ी चाहता हूँ
3. चूँकि हमे दोनों अल्फाज़ पता थे इसलिए हमने दोनों अल्फाज़ को 22 के वज़न में ही बांधा है.अगर ऐसा ही लिखा रहने दें तो ...
आपकी महब्बत और मशविरे का तलबगार..

Comment by Afroz 'sahr' on November 2, 2017 at 12:03am
जनाब सलीम रज़ा साहिब बहुत अच्छी ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद पेश करता हूँ,,,
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on November 1, 2017 at 9:58pm
अच्छी ग़ज़ल हुई आदरणीय..आदरणीय समर जी की टिप्पड़ी से थोडा ज्ञानबर्धन भी हो गया..सादर
Comment by Samar kabeer on November 1, 2017 at 9:35pm
जनाब सलीम रज़ा साहिब आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
मतले के ऊला मिसरे में 'मेहनत'शब्द ग़लत है,इसका वज़्न 212 हो रहा है,जबकि सही शब्द है "मिहनत"जिसका वज़्न है 22।
इसी तरह मक़्ते के सानी मिसरे में 'शोहरत'ग़लत है,इसका वज़्न आपने लिया है212 जबकि सही शब्द है "शुहरत"जिसका वज़्न है22,देखियेगा ।
Comment by SALIM RAZA REWA on November 1, 2017 at 8:30pm

जनाब आशुतोष मिश्रा जी ,
ग़ज़ल में आपकी शिरक़त और हौसला अफ़जाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया।

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