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ढूढते हैं वो बहाना रूठ जाने के लिए ।।
है बहुत अच्छा तरीका ज़ुल्म ढाने के लिए ।।
इक तेरा मासूम चेहरा इक मेरी दीवानगी ।
रह गईं यादें फकत शायद मिटाने के लिए ।।
फिर वही क़ातिल निगाहें और अदायें आपकी।
याद आयी हैं हमारा दिल जलाने के लिए ।।
घर मेरा रोशन है अब भी आपके जाने के बाद ।
हैं चरागे ग़म यहाँ घर जगमगाने के लिए ।।
चैन से मैं सो रहा था कब्र में अपनी तो क्यों ।
तुम यहाँ भी आ गए मुझको सताने के लिए ।।
ये समंदर चल पड़ा लेने उसे आगोश में ।
उठ रहीं लहरें बहुत दरिया को पाने के लिए ।।
शक़ की बुनियादों पे कोई ताज कायम कब रहा ।
आशिकी होती कहाँ है आजमाने के लिए ।।
हो गया कुर्बान वो मजबूरियों के नाम पर ।
कौन जीना चाहता है मुँह छुपाने के लिए ।।
इश्क़ में तू डूब लेकिन याद रख इतना सबक़ ।
लोग मिलते हैं यहाँ ख़्वाहिश जताने के लिए ।।
इस तरह तपती हुई प्यासी जमीं को देखकर ।
आ रहे बादल यहाँ कुछ दिन बिताने के लिए ।।
बारिशों के दौर में अब हो गए चेहरे हरे ।
है किसी मधुमास का यौवन रिझाने के लिए ।।
नवीन मणि त्रिपाठी मौलिक अ प्रकाशित
Comment
आ0 कबीर सर नमन । अपने जो शेर भेजा है उसमें यां शब्द न तो हिंदी है न उर्दू है । आज के डेट में यां वां आदि शब्द ग़ज़ल में वर्जित कर दिए गये हैं । ऐसा सुना है ।
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है,बधाई स्वीकार करें ।
दूसरे शैर के सानी में 'शायद'शब्द भर्ती का है, इसकी जगह 'मुझको' कर सकते हैं ।
'चैन से मैं सो रहा था क़ब्र में अपनी तो क्यों
तुम यहाँ भी आ गए मुझको सताने के लिए'
ये शैर पढ़कर किसी का पुराना शैर याद आ गया:-
"सोया हुआ था चैन से ओढ़े कफ़न मज़ार में
याँ भी सताने आ गए किसने पता बता दिया"
सातवें शैर के ऊला में ऐब-ए-तनाफ़ुर है 'शक की' ।
11वे शैर में 'चेहरे' नहीं चहरे, पहले भी बता चुका हूँ ।
खूबसूरत ग़ज़ल कही आदरणीय त्रिपाठी जी....
आदरणीय नवीनमणि जी इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए दिली मुबारकबाद कुबूल कीजिये | बहु उम्दा
आदरणीय नवीनमणि त्रिपाठी जी आदाब,
बेहतरीन अश'आरों से सजी ग़ज़ल । हर शे'र बढ़िया । दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल करें । बाक़ी गुणीजन अपनी राय देंगे ।
लाज़बाब ग़ज़ल आदर्णीय त्रिपाठी जी. बधाई
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