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है आई खुश्बू तेरी जिधर से ।
गुज़र रहा हूँ उसी डगर से ।।
नशे का आलम न पूछ मुझसे ।
मैं पी रहा हूँ तेरी नज़र से ।।
हयात मेरी भी कर दे रोशन ।
ये इल्तिज़ा है मेरी क़मर से ।।
हजार पलके बिछी हुई हैं ।
गुज़र रहे हैं वो रहगुजर से ।।
खफा हैं वो मुफलिसी से मेरी ।
जो तौलते थे मुझे गुहर से ।।
यूँ तोड़कर तुम वफ़ा के वादे ।
निकल रहे हो मिरे शहर से ।।
उन्हें पता हैं मेरी खताएँ ।
वे राज लेते हैं मोतबर से ।।
न कर तू साजिश न काट उसको ।
मिलेगा साया उसी शजर से ।।
हैं आसुओं को छुपाना मुश्किल ।
निकल पड़े हैं जो चश्मे तर से ।।
बड़ी उम्मीदें थीं आज उससे ।
मिला कहाँ वो मुझे जिगर से ।।
--नवीन मणि त्रिपाठी मौलिक अप्रकाशित
Comment
सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई आ. भाई नवीन जी ।
बहुत प्यारी ग़ज़ल कही है आपने आदरणीय नवीन जी | हार्दिक बधाई |
आदरणीय नवीन जी, एक खूबसूरत आहंग में खूबसूरत ग़ज़ल हुई है. हार्दिक बधाई.
'तमाम खुश्बू तेरी जिधर से' की जगह 'है आयी खुशबू तेरी जिधर से' भी एक विकल्प हो सकता है.
'जो अश्क़ आये हैं चश्मे तर से' की जगह 'निकल पड़े हैं जो चश्मे तर से' भी एक विकल्प हो सकता है.
'लगा रहे बोलियां जिगर से' को किसी और तरह से कहना बेहतर होगा.
सादर
आ0 मुहम्मद आरिफ साहब तहे दिल से शुक्रिया ।
आ0 अफरोज सहर साहब ग़ज़ल तक आने के लिए शुक्रिया । मतले को राबिता के साथ पेश किया है जिधर से महबूब की खुशबू आ रही है उसे रास्ते से मैं गुजर रहा हूँ । उर्दू शब्दों में लिंग भेद और उच्चारण को दोष हो सकता है । उसे ठीक करता हूँ ।
आदरणीय नवीनमणि त्रपाठी जी आदाब,
छोटी बह्र की बेहतरीन ग़ज़ल । हर शे'र मस्त । ग़ज़ल पढ़कर अच्छा लगा । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
नोट:- कितना अच्छा हो यदि आप जैसे ग़ज़लगो साहित्य की अन्य विधाओं में अपनी सृजनशीलता का परिचय देने वालों को भी अपनी टिप्पणियों से पोषित करें ताकि उनको भी संबल मिलें ।
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