डर लगता है दुनिया से
और घर वालों के तानों से,
और कभी डर जाती हूँ मैं
प्यार के इन अफसानों से।।
कितनी मुश्किल आती है
और कितने ही गम सहते हैं,
लाखों कोशिश कर लें-
फिर भी तन्हा ही हम रहते हैं।।
रहता कुछ भी याद नहीं
जब याद किसी की आती है,
प्रेस से कपड़े जलते हैं-
काॅफी फीकी रह जाती है।।
माँ भी गुस्सा करती है
और बापू भी चिल्लाते हैं,
मगर किसी को इस दिल के
हालात समझ ना आते हैं।।
होती है जब रात सुकूँ से
ये सारा जग सोता है,
सारी सारी रात जाग
मेरा दिल ख़्वाब संजोता है।।
कुछ पल बीते आँख लगी
माँ मुझे जगाने लगती है,
कितना सोयेगी...कह कह कर
शोर मचाने लगती है।।
दिन भर मुरझाया सा मन
फिर इक पल में खिल जाता है,
रौशन हो उठतीं आँखें-
जब कहीं नजर तू आता है।।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आद0 रक्षिता सिंह जी सादर अभिवादन। बहुत ही बेहतरीन सृजन। भाव सम्प्रेषण उत्तम। बधाई आपको इस सृजन पर
इस भावपूर्ण सुंदर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई आदरणीया।
आदाब आदरणीय आरिफ जी एवं तस्दीक जी,
सराहना के लिए बहुत बहुत शुक्रिया। श्रीमान समर कबीर जी के इस्लाह को मद्दे नजर रखते हुए मैंने अपनी त्रुटियाँ सुधारली हैं।
आदरणीया रक्षिता जी आदाब,
छू लेने वाली रचना । हार्दिक बधाई स्वीकार करें । आली जनाब मोहतरम समर कबीर साहब की इस्लाह पर गौर करें ।
मुहतर्मा रक्षिता साहिबा , दिल की गहराइयों को छूती सुन्दर रचना हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं।
आदरणीय कबीर जी एवं मेरे समस्त गुणीजन,
मार्गदर्शन व हौसला अफजाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया... लेखन सार्थक हुआ।।
मोहतरमा रक्षिता सिंह जी आदाब,बहुत उम्दा रचना हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
'कितनी मुश्किल आती हैं'
इस पंक्ति में 'मुश्किल'शब्द एक वचन है, इसलिये 'हैं' को "है" करना उचित होगा ।
20वीं पंक्ति में 'खआव' क्या है?,शायद आप "ख़्वाब"लिखना चाहती थीं?
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