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अभी इग्नोर कर दो, पर, ज़बानी याद आयेगी
अकेले में तुम्हें मेरी कहानी याद आयेगी
चढ़ा फागुन, खिली कलियाँ, नज़ारों का गुलाबीपन
कभी तो यार को ये बाग़बानी याद आयेगी
मसें फूटी अभी हैं, शोखियाँ, ज़ुल्फ़ें, निखरता रंग
इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी
मुबाइल नेट दफ़्तर के परे भी है कोई दुनिया
ठहर कर सोचिए, वो ज़िंदग़ानी याद आयेगी
कभी पगडंडियों से राजपथ के प्रश्न मत पूछो
सियासत की उसे हर बदग़ुमानी याद आयेगी
मुकाबिल हो अगर दुश्मन निहायत काँइयाँ फिर तो
बरत तुर्की-ब-तुर्की ताकि नानी याद आयेगी
बहुत संतोष औ’ आराम से है ज़िन्दग़ी कच की
मगर कैसे कहे, कब देवयानी याद आयेगी ?
सदा रौशन रहे पापा.. चिराग़ों की तरह ’सौरभ’
मगर माँ से सुनो तो धूपदानी याद आयेगी
****
सौरभ
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
उर्दू में "ज़बानी" का अर्थ होता है 'कंठस्थ होना' और जो चीज़(याद) कंठस्थ है तो 'याद आयेगी' कैसे कह सकते हैं,इसलिये ये शंका पैदा हुई मुहतरम ।
आदरणीय समर साहब, आपकी टिप्पणी में ही आपके प्रश्न का उत्तर भी निहित है. बस ठहर कर देखना भर है. भाई साहब,
मिसरा तस्दीक कर रहा है भविष्य की होनी का, जिसमें किसी कार्य की पूर्णता पर कोई संदेह नहीं प्रतीत होता. अर्थात, जिसे आप भूतकाल का विन्यास मात्र मान कर इसकीव्यवस्था पर संदेह कर रहे हैं, उसे हिंदी व्याकरण में संदिग्ध भूतकाल की श्रेणी का वाक्य-विन्यास माना जाता है. इसी क्रम में आगे स्पष्ट कर दूँ कि उक्त मिसरे से कार्य की पूर्णता पर अवश्यंभावी होने का भाव ज़ाहिर होता है. यानी, ज़बानी या ज़ुबानी याद आना इस नज़रिये से प्रयुक्त हुआ है.
विश्वास है, आप हिंदी भाषा की इस विशिष्टता को समर्थन देंगे. आपके प्रश्न से कई पाठकों के संदेहों को समुचित समाधान मिल जायेगा.
सादर
आदरणीया राजेश कुमारी जी, आपकी नेकनिग़ाही बनी रहे. होली की शुभकामनाएँ
शुभातिशुभ
मुहतरम जनाब सौरभ साहिब ,अच्छी ग़ज़ल हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं। ज़बानी का एक ऑप्शन निशानी हो सकता है ।
जनाब सौरभ पाण्डेय जी आदाब,क्या ग़ज़ल कही है,वाह एक एक शैर अपना अलग ही रंग दिखा रहा है,लेकिन मतले के दोनों मिसरों के रब्त और ख़ास तौर पर ऊला मिसरे के क़ाफिये 'ज़बानी' को लेकर मेरे मन में उसी वक़्त से दुविधा है जब ये ग़ज़ल मैंने आपकी ज़बान से सुनी है ।
'पर,ज़बानी याद आयेगी' इसमें 'ज़बानी' के साथ 'याद आयेगी' कुछ अजीब सा लग रहा है,क्योंकि 'ज़बानी याद कर ली है' 'ज़बानी याद है मुझको''ज़बानी याद कर लूंगा की हद तक तो 'ज़बानी'के साथ आगे के जुमले का व्याकरण बिल्कुल दुरुस्त है, लेकिन 'ज़बानी याद आयेगी' गले से उतरने को तैयार नहीं है,व्याकरण की दृष्टि से 'ज़बानी याद आयेगी ' की तरकीब मेरे नज़दीक सही नहीं है,आप इस पर कुछ रौशनी डालें और मेरी शंका का समाधान करने का कष्ट करें ।
इसके अलावा ग़ज़ल का हर शैर अपनी मिसाल आप है, मेरी तरफ़ से इस ग़ज़ल की प्रस्तुति पर दिल खोलकर मुबारकबाद पेश करता हूँ,और बाक़ी पहले ही दाद दे चुका हूँ ।
आजकल यहाँ टिप्पणियाँ fb. की तरह की जा रही हैं मुहतरम कौन लगाम कसे,मेरे बस की बात नहीं ।
लाजवाब गजल हुई है, आ. भाई सौरभ जी । कोटि कोटि बधाई ।
वाह्ह्ह बहुत दिनों बाद आपकी कोई ग़ज़ल पढ़ रही हूँ आद० सौरभ जी बहुत उम्दा ग़ज़ल कही है
चढ़ा फागुन, खिली कलियाँ, नज़ारों का गुलाबीपन
कभी तो यार को ये बाग़बानी याद आयेगी ------बहुत सुन्दर शेर
कभी पगडंडियों से राजपथ के प्रश्न मत पूछो
सियासत की उसे हर बदग़ुमानी याद आयेगी -----बहुत सही बात कही
शेर दर शेर मुबारकबाद स्वीकारें
आदरणीय आरिफ़ साहब, आपने प्रस्तुत हुई रचना के लिए समय निकाला और उत्साहवर्द्धन किया, इस हेतु हार्दिक धन्यवाद.
आदरणीय सौरभ पांडे जी आदाब,
बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल का मुजाहिरा । उम्दा अश'आरों से सुसज्जित ग़ज़ल । शे'र दर शे'र दादक्षके साथ मुबारकबाद क़ुबूल कीजिए ।
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