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जरूरत नहीं अब तेरी रहमतों की ।
हमें भी पता है डगर मंजिलों की ।।
है फ़ितरत हमारी बुलन्दी पे जाना ।
बहुत नींव गहरी यहाँ हौसलों की ।।
अदालत में अर्जी लगी थी हमारी ।
मग़र खो गयी इल्तिज़ा फैसलों की ।।
भटकती रहीं ख़्वाहिशें उम्र भर तक ।
दुआ कुछ रही इस तरह रहबरों की ।।
उन्हें जब हरम से मुहब्बत हुई तो ।
सदाएं बुलाती रहीं घुघरुओं की ।।
न उम्मीद रखिये वो गम बाँट लेंगे ।
यहाँ फ़िक्र किसको रही आंसुओं की ।।
चुनौती अंधेरों से जब भी मिली तो ।
लगी कीमती रौशनी जुगनुओं की ।।
नदारद तबस्सुम है चेहरों से सबके ।
है तादात लम्बी यहां गमजदों की ।।
कहीं खो गयी आज इंसानियत फिर।
खबर ही नहीं आदमी को हदों की ।।
बिछे हैं यहां दागियों की डगर में ।
ये ख्वाहिश नहीं थी चमन के गुलों की ।।
नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आ. भाई नवीन जी, सुंदर गजल हुयी है । हार्दिक बधाई ।
बढ़िया ग़ज़ल है आदरणीय नवीन मणि जी. हार्दिक बधाई प्रेषित है. सादर.
हार्दिक बधाई आदरणीय नवीन मणि जी।बेहतरीन गज़ल।
कहीं खो गयी आज इंसानियत फिर।
खबर ही नहीं आदमी को हदों की ।।
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