हाथ लगा जो गाल पर, पटकेंगे धर केश ।
दुनिया संग बदल रहा, गाँधी का ये देश।।
नैतिकता का पाठ अब, पढ़े-पढ़ाये कौन ?
मात-पिता-बच्चे सभी, ले मोबाइल मौन।।
'तुम' धन 'मैं' जब 'हम' हुए, दोनों हुए विशेष।
'हम' ऋण 'तुम' जैसे हुए, नहीं बचा अवशेष ।।
रीति जहां की देख कर, मन चंचल, मुख मौन।
मतलब के सधते सभी, पूछें तुम हो कौन ?
छप कर बिकता था कभी, जिंदा था आचार।
जबसे बिक छपने लगा, मृत लगते अखबार।।
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय गणेश जी,
दोहे बहुत अच्छे लगे. हार्दिक बधाई.
'छप कर बिकता था कभी, जिंदा था आचार।
जबसे बिक छपने लगा, मृत लगते अखबार।।'
इस दोहे में मेरे ख़याल से 'लगते' के अनुरूप 'बिकता था' को 'बिकते थे' और दूसरी पंक्ति में 'लगा' को 'लगे' करना उपयुक्त होगा.
सादर
जीवन जीने के पहलुओं को वयां करती बेहतरीन रचना, हार्दिक बधाई आदरणीय सर जी.
हार्दिक बधाई आदरणीय गणेश जी बागी जी।लाज़वाब प्रस्तुति।
सभी दोहे एक से बढ़कर एक हैं। प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय गणेश जी।
बेहद उम्दा ...बहुत बहुत बधाई आप को आदरणीय | सादर
जनाब गणेश जी "बाग़ी" साहिब आदाब,हालात-ए-हाज़िरा पर बहुत उम्दा दोहे रचे आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
बहुत बढ़िया दोहे गणेश जी।
/तुम + मैं =हम
/हम - तुम =0
वाह। अद्भुत
आद0 गणेश जी बागी जी सादर अभिवादन। एक से बढ़कर एक उम्दा दोहे। वर्तमान को आईना दिखाती,,
रीति जहां की देख कर, मन चंचल, मुख मौन।
मतलब के सधते सभी, पूछें तुम हो कौन ? वाह वाह वाह, क्या कहने
बहुत बहुत बधाई आपको।
खूबसूरत दोहे, सामाजिक यथार्थ को रेखांकित करते हुए। कदाचित् भूलवश दूसरे दोहे का दूसरा तुकान्त फौन होना चाहिए, श्री जी !
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