अपने इस मुकाम पर वह अब अपनी डायरी और फोटो-एलबम के पन्ने पलट कर आत्मावलोकन कर रही थी।
"सांस्कृतिक परंपरागत रस्म-ओ-रिवाज़ों को निबाहती हुई मैं सलवार-कुर्ते-दुपट्टे से जींस-टॉप के फैशन की चपेट में आई और फिर आधुनिक कसी पोशाकों को अपनाती हुई वाटर-पार्क व स्वीमिंगपूलों के लुत्फ़ लेती हुई अत्याधुनिक स्वीमिंग सूट तक पहुंच ही गई!" तारीख़ों पर नज़रें दौड़ाती हुई एक आह सी भरती हुई उसने अपनी आपबीती पर ग़ौर फ़रमाते हुए अपने आप से कहा - "ओह, धन-दौलत और नाम कमाने की लालच में फैशनों का अंधानुकरण करती हुई आख़िर साथियों की तरह मैंने भी थोड़ा-थोड़ा करके शरीर के मुख्य भागों से वस्त्र कम करते हुए वहां फैशनेबल टैटू गुदवा लिए!" फिर अपने साथियों के टैटूमय फोटो देख कर उनके नग्न-अर्द्धनग्न शरीर याद करते हुए उसने अपने गंजे सिर और पूर्ण-नग्न शरीर पर बने जंज़ीरनुमा टैटूज़ को निहारते हुए अपने मन से कहा - "लेकिन.. लेकिन यह सब मैंने केवल अपनी क्षणिक ख़ुशी के लिए किया या हाई-प्रोफाइल समाज और उसके पुरुषों की ख़ुशी के लिए? आज़ादी के नाम शरीर सार्वजनिक करने के लिए या बेचने के लिये? अपने संस्कारों व अपने शुभचिंतकों से धोखा, छल किया या मात्र अपनी और पुरुषों की यौन-संतुष्टि परिलक्षित हुई?"
"नहीं, मुझे अब निगेटिविटी छोड़नी होगी! कितने मज़े कर लिए इतनी सी ज़िन्दगी में! ...एक अविवाहित युवती को अब और क्या चाहिए?" सहसा वह दूसरी तरह से सोचने लगी।
"अभी तू अधूरी है, मां बने बिना! ममता की असली अनुभूति के बिना! पति और घर-परिवार के बिना! एक बार अपने 'सम्पूर्ण भारतीय महिला' का रूप भी तो अपना कर देख! असली मज़ा और सुख-संतुष्टि चख के तो देख स्वावलंबन के साथ!" उसकी सुसंस्कृत अंतर्आत्मा ने उसे झकझोरते हुए कहा।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
मेरी इस ब्लॉग पोस्ट पर समय देकर इसके मर्म तक जाकर अपने विचार सांझा करते हुए मेरी हौसला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया मुहतरमा जनाब मोहम्मद आरिफ़ साहिब, जनाब समर कबीर साहिब,जनाब विजय निकोरे साहिब, जनाब तस्दीक़ अहमद ख़ान साहिब, जनाब सुशील सरना साहिब,मुहतरमा नीलम उपाध्याय साहिबा और मुहतरमा बबीता गुप्ता साहिबा।
जनाब शहज़ाद उस्मानी साहिब आ दाब , उम्दा लघुकथा हुई है मुबारकबाद क़ुबुल फरमाएं l
आदरणीय उस्मानी साहिब , आदाब .... वर्तमान को जीती इस बेहतरीन लघु कथा के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें।
अच्छी लघु कथा के लिए हार्दिक बधाई
आधुनिकता की दौड़ में चाहे जितनी संतुष्टि करले लेकिन सही आत्म संतुष्टि माँ बनने पर ही मिलती हैं.बेहतरीन रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार कीजियेगा आदरणीय सरजी।
आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी , सच कहा। स्त्री की परिपूर्णता तभी होती है जब माँ बनती है। अच्छी लघु कथा की पेशकश। बधाई स्वीकार करें ।
जनाब शैख़ शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,बहुत उम्दा लघुकथा हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,
स्त्री होने की चरम पराकाष्ठा उसका माँ बनना है ।आजकल देखने में यह आ रहा है कि हम कितने फैशनेबल हैं । फैशन की अंधी दौड़ में धर्म और नैतिकता को ताक में रख दिया है जबकि यह होना नहीं चाहिए । बहुत ही उम्दा लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
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