रफ़्ता रफ़्ता अपनी मंज़िल से जुदा होते गए,
राह भटके लोग जिनके रहनुमा होते गए.
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तज़र्बे मिलते रहे कुछ ज़िन्दगी में बारहा
कुछ तो मंज़िल बन गए कुछ रास्ता होते गए.
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चुस्कियाँ ले ले के अक्सर मय हमें पीती रही
वो नशा होती गयी हम पारसा होते गए.
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उन चिराग़ों के लिए सूरज ने माँगी है दुआ
सुब्ह तक जलते रहे जो फिर हवा होते गए.
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ज़िन्दगी की राहों पर जब धूप झुलसाने लगी
पल तुम्हारे साथ जो गुज़रे घटा होते गए.
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फिर मुहब्बत के सफ़र में वो भी मंज़िल आ गयी
दर्द ही जब ख़ुद-ब-ख़ुद अपनी दवा होते गए.
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पत्थरों के शह्र में सब लोग पत्थर ही के थे
आईने को देख कर कुछ आईना होते गए.
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“नूर” तुझ को छोड़ना होगा हमें मालूम था
फिर भी ऐ दुनिया! तुझी से आश्ना होते गए.
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निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आ. लक्ष्मण जी
शुक्रिया आ. बबीता जी
आ. भाई नीलेश जी, बेहतरीन गजल हुयी है , हार्दिक बधाई।
बेहतरीन रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार कीजियेगा ,आदरणीय सरजी।
शुक्रिया आ. मोहम्मद आरिफ़ साहब
शुक्रिया आ. रवि जी
आदरणीय नीलेश जी आदाब,
बहुत ही नायाब ग़ज़ल । शे'र दर शे'र दाद के साथ दिली मुबारकबाद क़ुबूल करें ।
आदरणीय नीलेश जी अच्छी गजल के लिए मुबारक बाद पेश है सच में फोन में तज्रिबा लिखना बड़ा कठिन काम हो जाता है
जी समर सर
धन्यवाद आ. नीलम जी
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