मुझ को कहा था राह में रुकना नहीं कहीं
सदियों को नाप कर भी मैं पहुँचा नहीं कहीं.
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ज़ुल्फ़ें पलक दरख़्त सभी इक तिलिस्म हैं
इस रेग़ज़ार-ए-ज़ीस्त में साया नहीं कहीं.
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तुम क्या गए तमाम नगर अजनबी हुआ
मुद्दत हुई है घर से मैं निकला नहीं कहीं.
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अँधेर कैसा मच गया सूरज के राज में
जुगनू, चराग़ कोई सितारा नहीं कहीं.
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खेतों को आस थी कि मिटा देगा तिश्नगी
गरजा फ़क़त जो अब्र वो बरसा नहीं कहीं.
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ये और बात है कि अदू को चुना गया
गरचे वो मेरे सामने टिकता नहीं कहीं.
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हमने भी “नूर” जंग लड़ी रात के ख़िलाफ़
पर सुब’ह अपने नाम का चर्चा नहीं कहीं.
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निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आ. महेंद्र जी
शुक्रिया आ. बृजेश जी
बेहद उम्दा ग़ज़ल है आदरणीय निलेश सर। हर शेर ख़ूबसूरत। हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए। सादर।
आदरणीय नीलेश जी बहुत ही खूब ग़ज़ल कही है...सादर
शुक्रिया आ. बलराम जी
आदरणीय नीलेश भाई बहुत बहुत बधाई स्वीकार करें। बेहद खूबसूरत ग़ज़ल कही है आपने। शानदार।
सादर।
शुक्रिया आ. अजय जी, लक्ष्मण जी.
शुक्रिया आ. समर सर
//लेकिन इस ग़ज़ल ने आपका 'वेट' और बढ़ा दिया है.//
सहमत हूँ जनाब अजय तिवारी जी से,इसे कहते हैं:-
'काम का काम है,अंगड़ाई की अंगड़ाई है'
आ. भाई नीलेश जी, उम्दा गजल हुयी है । हार्दिक बधाई ।
'वेट loss का टारगेट भी पूरा हुआ'
लेकिन इस ग़ज़ल ने आपका 'वेट' और बढ़ा दिया है.
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