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"फ़ितरतें और गुफ़्तगू, बस!" - (लघुकथा)

दाढ़ी-मूंछधारी दोनों दोस्त, मौलवी अब्दुर्रहमान साहिब और पंडित रामनारायण जी रोज़ाना की तरह अलसुबह की चहलक़दमी कर हंसी-मज़ाक सा करते हुए अपने घरों की ओर वापस लौट रहे थे। तभी विपरीत दिशा से दिखाई दिये दिलचस्प नज़ारे पर परंपरागत संबोधन के साथ टिप्पणी करते हुए पंडित जी ने कहा - "मुल्ला जी! वो देखो तुम्हारी पड़ोसन बुरका पहन कर अपने बच्चे को श्रीकृष्ण जी की फ़ैन्सी पोशाक में स्कूल छोड़ने अकेले जा रही है पैदल!"


"उसका नहीं, उसकी पड़ोसन शर्मा मैडम का बेटा होगा पंडित जी!"


"नहीं, उसी का बेटा है, मुझे मालूम है! पैदा होने के कुछ दिनों बाद ही मैनें उसकी जन्म-कुण्डली बना कर उसके अब्बूजान को दी थी!"


"ऐं! ला.. हौल.. वाला कुव्वत! ऐसा कैसे हो सकता है! नमाज़ी-परहेज़ी बीवी के कहने-समझाने पर भी वो सभी नमाज़ें अदा नहीं करता और फिर कुण्डली पे भरोसा करता है!"


"कहता था कि उसका अक़ीक़ा अदा कर क़ुरआन-ख़्वानी  करवा कर, क़ुरआन-शरीफ़ से नाम निकलवा कर उसका नाम तो रख दिया है, अब कुण्डली अपने अज़ीज़ दोस्त से ही बनवा कर कुछ आइडिया भी तो ले लूंं पहली औलाद की ज़िन्दगी से मुताल्लिक!"


"अच्छा! सुना है कि तुम अपने बच्चों को छुट्टियों में उसकी बीवी के पास उर्दू सीखने भेजते हो पंडित जी!"


"भाई! अपनी-अपनी अभिरुचि, ज़रूरत, आस्था, विश्वास और संतुष्टि की बात है!"


"बात तो सही कही पंडित जी आपने। जब हममुल्क हैं ही, तो हमें अच्छी बातें एक-दूसरे से सीखने और सिखाने में ही हमारी बेहतरी और समझदारी है! ... लेकिन अपने मज़हब और तहज़ीब से बग़ावत करके नहीं!"


"जी मुल्ला जी, कल्पना की दुनिया और फ़ैन्सी पहनावे-दिखावे से तो केवल औपचारिकतायें और क्षणिक आनंद-अनुभूति होती है न! महान धार्मिक चरित्रों की अच्छाइयां हम कहां बच्चों को सिखा पा रहे हैं!"


"यही तो मुद्दा है! जड़ें कट रही हैं मज़हबी तालीम की और मुल्क के कल्चर की; कॉम्पिटीशनों से लुत्फ़ उठाने की फ़ितरतों से! एक नई नास्तिक नस्ल की फ़सल खड़ी की जा रही है; कार्यक्रमों की आड़ में अक्सर ही सिर्फ़ लुत्फ़ उठाने के लिए!"


गुफ़्तगू करते हुए वे दोनों एक चौराहे के पास बैठ गये और बीड़ियां सुलगा कर पीने लगे। स्कूलों और ट्यूशनों की ओर जाते विद्यार्थी उन दोनों को देख मुस्कराते या उपेक्षित कर वहां से गुजरते रहे।


1-'क़ुरआन-ख़्वानी'= सामूहिक पवित्र क़़ुरआन-पाठ रिवाज़।
2-'अक़ीक़ा'= शिशु जन्म के कुछ दिनों बाद उसके मुण्डन/नामकरण आदि की परंपरा।

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on September 13, 2018 at 8:21pm

मेरी इस ब्लॉग पोस्ट पर उपस्थित होकर, समय देकर अपनी राय सांझा करने और मेरी हौसला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया मुहतरम जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' साहिब, मुहतरमा बबीता गुप्ता साहिबा, जनाब समर कबीर साहिब और जनाब तेजवीर सिंह साहिब।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 12, 2018 at 6:19am

आ. भाई शेख उस्मानी जी, अपने आप में बहुत कुछ बोलती बेहतरीन कथा के लिए कोटि कोटि बधाई ।

Comment by TEJ VEER SINGH on September 11, 2018 at 12:15pm

हार्दिक बधाई आदरणीय शेख उस्मानी जी।बेहतरीन लघुकथा।

Comment by Samar kabeer on September 9, 2018 at 8:05pm

जनाब शैख़ शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,अच्छी लघुकथा हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

Comment by babitagupta on September 8, 2018 at 10:33pm

बेहतरीन रचना द्वारा धर्मवाद पर एक विचाराधीन  बहस. स्वीकार कीजियेगा आदरणीय शेख सरजी.

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