"ओये! .. अबकी बारी, मंदिर-मस्जिदों पे भारी!"
"नईं बे! चुनावी पारी की भेंटें 'वारि' ... ! वोटों की यारी, तैयारी जारी!"
"हां .. हां .. तुष्टिकरण जब तक, मज़हबी अतिक्रमण तब तक!"
"नईं बे! सियासी अतिक्रमण जब तक, वोट-बैंक तब तक! ... सियासत तब तक!"
"हां .. हां .. ऐसी 'ख़ुदग़र्ज़' सियासत जब तक, हमारी 'आफ़तें' तब तक!"
"नईं बे! 'ऐसी' जनता जब तक, 'ऐसी' सियासत तब तक और 'ऐसा' जनतंत्र तब तक!"
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
अनुमोदन और हौसला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया मुहतरम जनाब समर कबीर साहिब, जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' साहिब और मुहतरमा नीलम उपाध्याय साहिबा।
आ. भाई शैख़ शहज़ाद जी, प्रभावशाली कथा हुई है। हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
आदरणीय शेख उस्मानी जी, अच्छी लघुकथा हुई है। बधाई।
जनाब शैख़ शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,प्रभावशाली लघुकथा हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
मेरी रचना पर समय देकर अनुमोदन कर विचार सांझा करने और मेरी हौसला अफ़ज़ाई हेतु तहे दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया मोहतरम जनाब डॉ. विजय शंकर साहिब और जनाब
तेजवीर सिंह साहिब।
हार्दिक बधाई आदरणीय शेख उस्मानी साहब जी।बेहतरीन कटाक्ष युक्त लघुकथा । यही एक मात्र सत्य है कि साम दाम दंड भेद कुर्सी पर पहुंचो।
आदरणीय शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी , बात तो दमदार है , “ ऐसी' जनता जब तक, 'ऐसी' सियासत तब तक और 'ऐसा' जनतंत्र तब तक!".
सच तो यही है कि एक बार सारी जनता जाग जाए और सिर्फ जनता बन कर चुनाव निपटा दे , सब कुछ बहुत अच्छे से निपट जाएगा।
इस प्रभावशाली प्रस्तुति के लिए बधाई , सादर।
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