नाभी में लेकर कस्तूरी
तय करता मृग कितनी दूरी
पागल मनवा उलझा उलझा
सहरा-सहरा जंगल-जंगल
खोज रहा है नादानी में
बौराया सा हर पल प्रति पल
नाभी में लेकर कस्तूरी
तय करता मृग कितनी दूरी
रब के दर्शन की चाहत में
मंदिर मस्जि़द रस्ते रस्ते
भान नहीं है उनको इतना
राम रहीमा उर में बसते
बाहर ढूंढें चंदन नूरी
कैसे होगी चाहत पूरी
खेतों में जब उगता सूरज
मिलता सबसे वो हँस हँस कर
उजली भोर संदेशा लाती
माटी बैठे तब सज धज कर
मांग भरें किरणें सिंदूरी
दिन भर करती फ़िर मजदूरी
सहरा में पानी है दिखता
बादल में रोटी दिखती है
उसके माथे की रेखा में
किस्मत भी क्या क्या लिखती है
ख्वाब अधूरे प्यास अधूरी
देखो गुर्बत की मजबूरी
नाभी में लेकर कस्तूरी
तय करता मृग कितनी दूरी
राजेश कुमारी राज
Comment
आद० तेजवीर सिंह जी आपको गीत पसंद आया बहुत बहुत आभारी हूँ
बहना राजेश कुमारी जी आदाब,बहुत सुंदर गीत लिखा आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
मुझे ऐसा लग रहा है कि आपने ये गीत पहले भी ब्लॉग पर पोस्ट किया है?
एक ज़रूरी बात ये कि आपने रचना के साथ मंच के नियमानुसार मौलिक व अप्रकाशित नहीं लिखा?
बहुत सुन्दर रचना.
बधाई स्वीकार करें
आ. राजेश दी, सादर अभिवादन । सुंदर गीत हुआ है । हार्दिक बधाई ।
बहोत सुन्दर रचना
हार्दिक बधाई आदरणीय राजेश कुमारी जी।बेहतरीन गीत।
सहरा में पानी है दिखता
बादल में रोटी दिखती है
उसके माथे की रेखा में
किस्मत भी क्या क्या लिखती है
ख्वाब अधूरे प्यास अधूरी
देखो गुर्बत की मजबूरी
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