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खिजा के दौर में जीना मुहाल कर तो सही ।
मेरी वफ़ा पे तू कोई सवाल कर तो सही ।।
है इंतकाम की हसरत अगर जिग़र में तेरे ।
हटा नकाब फ़िज़ा में जमाल कर तो सही ।।
निकल गया है तेरा चाँद देख छत पे ज़रा ।
तू जश्ने ईद में मुझको हलाल कर तो सही ।।
बिखरता जाएगा वो टूट कर शजर से यहां ।
निगाह से तू ख़लिस की मज़ाल कर तो सही ।।
मिलेंगे और भी आशिक तेरे जहां में अभी ।
तू अपने हुस्न की कुछ देखभाल कर तो सही ।।
ऐ अब्र दम है तो सावन सा इस जमीं पे बरस ।
तपिस में जलते गुलों को निहाल कर तो सही ।।
यहां तो कुर्सियां मिलती हैं कातिलों को सनम ।
मुसलमां हिन्दू में दंगा- बवाल कर तो सही ।।
तुझे खुदा भी मैं शिद्दत से मान जाऊं मगर ।
सियाह रात है कोई कमाल कर तो सही ।।
तिज़ारतों का असर है मुहब्बतों पे बहुत ।
तू अपने भाव में थोड़ा उछाल कर तो सही ।।
ज़माना लौट भी सकता है हसरतों के लिए ।
ऐ हुक्मरान सितम पर मलाल कर तो सही ।।
गली से निकला है तू फिर से अजनबी की तरह ।
मेरे अज़ीज़ मेरा भी खयाल कर तो सही ।।
मौलिक अप्रकाशित
नवीन मणि त्रिपाठी
Comment
हार्दिक बधाई आदरणीय नवीन मणि जी।बेहतरीन गज़ल।
ज़माना लौट भी सकता है हसरतों के लिए ।
ऐ हुक्मरान सितम पर मलाल कर तो सही ।।
खूब सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
आ0 लक्ष्मण धामी साहब सादर आभार ।
आ0 कबीर सर सादर नमन के साथ तहेदिल से शुक्रिया सर । आपके आदेश का अविलम्ब पालन होगा । सादर नमन ।
आ. भाई नवीन जी, अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।
4थे शैर के सानी में 'खलिस' को "ख़लिश" कर लें ।
छटे शैर के सानी में 'तपिस' को "तपिश" कर लें ।
आ0 कबीर सर की महत्व पूर्ण इस्लाह का आकांक्षी ।
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