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सुनते हैं खूब न्याय की सच्चाइयाँ जलीं
कैसा अजब हुआ है कि अच्छाइयाँ जलीं।१।
वर्षों पुरानी बात है जिस्मों का जलना तो
इस बार तेरे शहर में परछाइयाँ जलीं।२।
कितने हसीन ख्वाब हुये खाक उसमें ही
ज्वाला में जब दहेज की शहनाइयाँ जलीं।३।
सब कुछ यहाँ जला है, तेरी बात से मगर
हाकिम कभी वतन में न मँहगाइयाँ जलीं।४।
जिसमें मिलन की बास थी नफरत घुली वहाँ
साजिश ये किसकी यार जो पुरवाइयाँ जलीं।५।
कितनी तड़प है देख ले बिरहन के भाग में
सावन बुझी न जेठ की तनहाइयाँ जलीं।६।
सोचा था खूब छाँव में अब तो रहेंगे पर
साजन के गाँव धूप में रानाइयाँ जलीं।७।
बदला है वक़्त भाग से उसका भी देखिये
हँस कर जो देखा आपने रुसवाइयाँ जलीं।८।
मौलिक-अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
Comment
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ ह,बधाई स्वीकार करें ।
सुनते हैं खूब न्याय को सच्चाइयाँ जलीं
कैसा अजब हुआ है कि अच्छाइयाँ जलीं--मतले के ऊला मिसरे में 'को' की जगह "की" करना उचित होगा ।
वर्षों पुरानी बात है जिस्मों का जलना तो
इस बार तेरे शहर में परछाइयाँ जलीं--ठीक है ।
कितने हसीन ख्वाब हुये खाक उसमें ही
ज्वाला में जब दहेज की शहनाइयाँ जलीं--ये शैर भी ठीक है ।
यूँ सब जला है खूब तेरी बात से मगर
हाकिम कभी वतन में न मँहगाइयाँ जलीं--इस शैर का ऊला यूँ करें तो गेयता बढ़ जायेगी:-
'सब् कुछ यहाँ जला है, तेरी बात से मगर'
जिसमें मिलन की बास थी नफरत घुली वहाँ
शाजिस ये किसकी यार जो पुरवाइयाँ जलीं--इस शैर के सानी मिसरे में 'शाजिस' को "साज़िश" कर लें ।
कितनी तड़प है देख ले बिरहन के भाग में
सावन बुझी न जेठ जो तनहाइयाँ जलीं--इस शैर के सानी मिसरे में रवानी नहीं है,देखें ।
सोचा था खूब छाँव में अब तो रहेंगे पर
साजन के गाँव धूप में रानाइयाँ जलीं--ये शैर ठीक है ।
बदला है वक्त भाग से उसका भी देखिये
हँस कर जो देखा आपने रुसवाइयाँ जलीं--इस शैर के ऊला में 'वक्त' को "वक़्त" कर लें ।
बाक़ी शुभ शुभ ।
आ. भाई बलराम जी, सादर अभिवादन । उपस्थिति और स्नेह के लिए आभार ।
जनाब लक्ष्मण जी, बहुत खूब ग़ज़ल हुई है। दाद के साथ मुबारक़बाद क़ुबूल फ़रमाएं!
सादर!
आ. भाई तेजवीर जी, सादर अभिवादन। गजल पर उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आभार ।
आ. प्रदीप जी, सादर आभार ।
//very good//
जनाब प्रदीप भट्ट साहिब,ऐसी टिप्पणी देना ओबीओ की परिपाटी नहीं,ये शोशल मीडिया पर होता है,विशेष ध्यान रखें,और हिन्दी में लिखें ।
हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"जी। बेहतरीन गज़ल।
कितनी तड़प है देख ले बिरहन के भाग में
सावन बुझी न जेठ जो तनहाइयाँ जलीं।६।
very good
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