बह्र -बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम
अरकान -मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
मापनी-1222 1222 1222 1222
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फरेब-ओ-झूठ की यूँ तो सदा जयकार होती है,
मगर आवाज़ में सच की सदा खनकार होती है।
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हुआ क्या है ज़माने को पड़ी क्या भाँग दरिया में
कोई दल हो मगर क्यों एक सी सरकार होती है
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शजर में एक साया भी छुपा रहता है अनजाना
मगर उसके लिए ख़ुर्शीद की दरकार होती है
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ख़ुदा देगा कभी तो अक़्ल दहशतगर्द लोगों को
ज़रूरत तो सुकूँ की सब को आख़िरकार होती है
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नहीं है ख़ौफ़ कोई भी हमें सहरा के साँपों से
सहम जाते हैं घर में जब कभी फ़ुफ़कार होती है
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सनद तारीख़ में मिलती निज़ामत है तभी बदली
वतन में जब अवामी गर कभी ललकार होती है
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समझदारी से जिस घर में मसाइल हल अगर होते
ख़ुशी की पायलों की फिर वहाँ झंकार होती है
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'तुरंत' अक़्सर रहा है सोचता यह आप भी सोचें
चमन में आज भी कलियों की क्यों चित्कार होती है
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गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' बीकानेरी
21 /12 /2018
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आ. भाई गिरधारी सिंह जी, सुंदर गजल हुयी है । हार्दिक बधाई ।
"के कानों" 'क' में मात्रा है,इसलिए टकराव नहीं ।
उन के कानों तक न पहुँचा और फ़साना बन गया, समर सर यहां भी तो लफ्ज़ टकरा रहे हैं फिर क्या अंतर हैं l
जनाब'तुरंत' जी,आपकी अगली ग़ज़ल का इंतिज़ार रहेगा ।
// इस बार जो मिसरा दिया गया है उसमे तनाफ़ूर है या नहीं //
इस बार के मिसरे में तनाफ़ुर नहीं है ।
आदरणीय Samar kabeer साहेब ,आदाब ,आपके जवाब से खुशी हुई | आपने अपना कीमती समय दिया इसके लिए शुक्रगुज़ार हूँ | इस बात को मैं हमेशा मानता हूँ कि हर्फे रवी कम से कम अ तो न हो तो अच्छा | यानि किसी शुद्ध व्यंजन को तो कम से कम हर्फे रवी न बनाया जाये लेकिन मेरे ख्याल से यह अधिकतर क्रिया से बने शब्द पर लागु होता है यह मैंने कहीं पढ़ा था | इसलिए असमंजस में था | जहाँ किसी व्यंजन के साथ कोई प्रत्यय घुलमिल जाये और पूर्णतः स्वतंत्र शब्द का निर्माण कर दे वहां हर्फ़े -रवी का नियम लागु न होकर किस स्वर की बंदिश बन रही है वही नियम लागु होता है ऐसा लोगों ने मुझे बताया | इसलिए "अकार " की बंदिश मानकर रचना कर दी | सामान्यतः मैं इस प्रकार की ग़ज़ल नहीं कहता | लेकिन चूँकि सभी क़ाफ़िया अपने आप में जानदार है और कई शब्दों में "कार " होते हुए भी "कार " शब्द के अर्थ का उनसे कोई सम्बन्ध नहीं | वे एक स्वतंत्र शब्द है यानि खुद ही अपने आप में हर्फ़े -रवी पर निर्भर नहीं है | इसलिए प्रयोग किया | ग़ज़ल की आपने भी सराहना की है | बहरहाल,मैं आपकी इस बात से सहमत हूँ कि ऐब अगर न भी हो और ऐब जैसा कुछ आभास भी लगे तो भी अपनी रचना से इसको दूर रखना चाहिए | ऐब-ए-तनाफ़ुर अवश्य ही गड़बड़झाला है कुछ मामले में आपने स्वीकार कर लिया तो मेरे दिल का बोझ हल्क़ा हो गया | लेकिन इसे ऐब अवश्य मानना चाहिए मैं आपकी बात से यहाँ भी सहमत हूँ | लेकिन ग़ज़ल के हुस्न में अगर इसे हटाने से कमी होती है तो इसे रख लेना ही बेहतर है | हालाँकि ऐसे मौके कम ही आते हैं | पुनः बहुत बहुत आभार | मेरे संदेह का निवारण करने के लिए |
समर सर आदाब , इस बार जो मिसरा दिया गया है उसमे तनाफ़ूर है या नहीं
जनाब 'तुरंत' जी आदाब,आपने अपने हिसाब से क़वाफ़ी लिये हैं 'यकार','नकार' वग़ैरह,क़वाफ़ी का आसान पैमाना है कि क़ाफ़िया के पहले बार बार आने वाला अक्षर हर्फ़-ए-रवी कहलाता है,जो ज़रूरी होता है,इस लिहाज़ से आपके लिए गए क़वाफ़ी देखें तो 'यकार'-'नकार' में 'कार'क़ाफ़िया हुआ,अब सवाल ये है कि फिर हर्फ़-ए-रवी क्या है?,आपके बताए या लिए गए क़वाफ़ी शुद्ध नहीं हैं,इस पर ग़ौर करें ।
अब रही बात ऐब-ए-तनाफ़ुर की बात तो,ये बता दूं कि यह सीखने सिखाने का मंच है,इस लिए हमें इस ऐब को इंगित करना पड़ता है, इसमें आपके दिए गए तर्क अच्छे हैं,जनाब डॉ. शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी साहिब इसे गड़बड़ घोटाला कहते हैं,और मेरा ये मानना है कि ये ऐब तो बहरहाल है,अब इसे मानना या न मानना दूसरी बात है,लेकिन शैर कहते समय हम इसका भी ध्यान रखें तो कोई बुराई नहीं,क्योंकि कुछ ऐब-ए-तनाफ़ुर ऐसे होते हैं कि उन्हें दूसरे शब्दों से बदला जा सकता है,और कुछ ऐसे होते हैं जिन्हें बदलने से शैर का हुस्न ख़त्म हो जाता है,यही तक़ाबुल-ए-रदीफ़ पर भी लागू होता है । उम्मीद है आप मेरी बात समझ रहे होंगे?
भाई Naveen Mani Tripathi जी ,आप द्वारा की गई हौसला आफ़जाई के लिए शुक्रगुज़ार हूँ | अवश्य मेरे लिए Samar kabeer साहेब की इस्लाह महत्वपूर्ण है और उनकी महरबानी के लिए शुक्रगुज़ार हूँ मुझे उनसे बहुत कुछ सीखना भी है |
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