ज़मीँ थे तुम मुहब्बत की तुम्हीँ गर आस्माँ होते
हमारे ग़म के अफ़साने ज़माने से निहाँ* होते (*छुपे हुए )
***
बने हो गैर के ,रुख़्सत हमारी ज़ीस्त से होकर
न देते तुम अगर धोका हमारे हमरहाँ* होते (*हमसफर )
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तुम्हारी आँख की मय को अगर पीते ज़रा सी हम
तुम्हीं साक़ी बने होते तुम्हीं पीर-ए-मुग़ाँ* होते(*मदिरालय का प्रबंधक )
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बनाया हिज़्र को हमने सहारा ज़िंदगी का अब
वगरना हम भी दुनिया में अभी तक कुश्तगाँ* होते (*मृत )
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तुम्हारी याद का मंज़र न भूले हैं अभी वर्ना
भटकते हम बियाबाँ में कि बह्र-ए-बेकराँ* होते (*बिना किनारों का समुन्दर )
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हमारी ज़िंदगी में तुम क़दम रखते क़सम से फिर
महकते हम चमन में और बू-ए-ज़ाफ़राँ * होते (*केसर की महक )
***
तुम्हारी बेवफ़ाई ने हमारा हौसला तोड़ा
नहीं तो हम मुहब्बत के अमीर-ए-कारवाँ* होते (*कारवाँ के सरदार )
***
मुहब्बत की ज़रा सी आबरू रखते हमारी तो
हमारे प्यार के किस्से जहाँ भर में बयाँ होते
***
'तुरंत' इतना भरोसा गर नहीं करते रक़ीबों पर
मोहब्बत की हसीँ राहों में अपने भी निशाँ होते
***
गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी |
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
नोट:- (इस ग़ज़ल की प्रेरणा जनाब राज नवादवी साहेब की ग़ज़ल में प्रयुक्त काफिया देखकर मिली )
Comment
तह-ए-दिल से शुक्रिया क़बूल करें जनाब बृजेश कुमार 'ब्रज साहेब . ज़र्रा -नवाज़ी है आपकी | जी ,वैसे तो क़ाफ़िया /रदीफ़ पर किसी का मालिकाना हक़ नहीं है ,लेकिन अगर कोई क़ाफ़िया का गुलदस्ता एक साथ उपहार में दे और उनके आधार पर कुछ अशआर कहने का मौका मिल जाये तो शुक्राना पेश करना मैं जरूरी समझता हूँ | हालाँकि मफ़हूम अपना होना जरूरी है किसी की नकल नहीं होनी चाहिए |
वाकई में बड़ी ही खूबसूरती से कही गई ग़ज़ल..पढ़ते हुए लगा मुझे कि नवादवी साहब से प्रेरित है..
आपका स्वागत है ब्रदर गहलोत साहब. सादर
तह-ए-दिल से शुक्रिया क़बूल करें खादिम का जनाब राज़ नवादवी साहेब . ज़र्रा -नवाज़ी है आपकी |
आदरणीय गिरधारी सिंह गहलोत साहब, सुन्दर ग़ज़ल की प्रस्तुति पे दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल करें. ज़र्रानवाज़ी का ममनून हूँ. सादर.
'फ़ुग़ाँ' शब्द स्त्रीलिंग है ।
जनाब गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
' तुम्हारे चश्म की मय को अगर पीते ज़रा सी हम '
इस मिसरे में 'चश्म'शब्द स्त्रीलिंग है,इस मिसरे को अगर यूँ कर लें तो गेयता बढ़ जाएगी:-
'तुम्हारी आँख से मय हम अगर पीते ज़रा सी तो'
' वगरना हम भी दुनियां में अभी तक कुश्तगाँ* होते'
इस मिसरे में 'दुनियां' को "दुनिया" कर लें ।
' चमन में हम महकते और बू-ए-जाफ़राँ* होते'
इस मिसरे में 'जाफ़रां' को "ज़ाफ़रां" कर लें,और इस मिसरे को अगर यूँ कर लें तो ऐब-ए-तनाफ़ुर भी निकल जायेगा:-
"महकते हम चमन में और बू-ए-ज़ाफ़रां होते'
' ज़रा सी आबरू रखते हमारी गर मुहब्बत की'
इस मिसरे को यूँ कर लें तो गेयता बढ़ जाएगी:-
'महब्बत की हमारी गर ज़रा सी आबरू रखते'
' न जाते छोड़कर हमको न जीवन में फ़ुग़ा* होते'
इस मिसरे में 'फ़ुग़ाँ '
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