भले नीम जां मेरा जिस्म हो अभी रूह इसमें सवार है
अभी जा क़ज़ा किसी और दर मेरी साँस में भी क़रार है
***
है जवाब देती लगे नज़र अभी है ख़याल की रोशनी
रहे ज़ीस्त मेरी रवाँ दवाँ ये तुम्हीं पे दार-ओ-मदार है
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जो पिलाई तूने थी चश्म से कभी मय जो बन के थी साक़िया
न उतर सका न उतार पर चढ़ा अब तलक वो ख़ुमार है
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मिले बार बार, जुदा हुए मिले फिर से, फिर से जुदा हुए
कि जनम जनम से लगी हुई मुझे खू तेरी मेरे यार है
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तुझे सौंप दी है ये ज़िंदगी नहीं इख़्तियार बचा मिरा
मुझे ख़ौफ़-ए- दुनिया हो क्यों भला मेरे साथ जो तेरा प्यार है
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बड़े तंग करते थे रोज-ओ-शब ये ग़मों के हादिसे ज़ीस्त में
ये तेरे क़दम का है मो'जिज़ा उसी दिन से ग़म भी फ़रार है
***
ये 'तुरंत ' फ़ख़्र की बात है जो नज़ीरें मिलती हैं अब तलक
जो शहीद इश्क़ में हो गए मेरा नाम उन में शुमार है
***
गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' बीकानेरी .
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
***
शब्दार्थ- नीम जां=मृतप्रायः , करार=स्थिरता ,शिकन=झुर्रियां
लैल-ओ-नहार = रात और दिन, नक़्श-ओ-निगार= बेल-बूटे, फूल-पत्तियाँ, रंग-ए-बहार= बसंत ऋतू की छटा , रवाँ दवाँ=चलती फिरती,दार-ओ-मदार=निर्भरता ,खू=आदत, इख़्तियार =नियंत्रण ,रोज-ओ-शब=दिन और रात, मो'जिज़ा=चमत्कार ,फ़ख़्र=गर्व ,शुमार (शामिल ),
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Comment
जी,यही बहतर है ।
आदरणीय Samar kabeer साहेब ,बहुत बहुत आभार | ये है और हैं का चक्कर तो दिमाग में आया ही नहीं | ये दोनों ही शेर हटा रहा हूँ |
'तुझे हो न हो मुझे वस्ल के सभी याद लैल-ओ-नहार है'
'खुदे रुख़ पे मेरे बहुत हसीं ये शिकन के नक़्श-ओ-निगार है'
इन दोनों मिसरों में 'है' कि जगह "हैं" आएगा,क्योंकि 'लैल-ओ-नहार' और 'नक़्श-ओ-निगार' बहुवचन हैं ।
'बड़े तंग करते थे रोज-ओ-शब ये ग़मों के हादिसे ज़ीस्त में'
ये मिसरा ठीक है ।
'ये 'तुरंत ' फ़ख़्र की बात है जो नज़ीरें मिलती है अब तलक'
इस मिसरे में 'है' को "हैं" कर लें,ठीक हो जाएगा ।
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी ,नमस्कार |
बे'पनाह, मुहब्बतों, नवाज़िशों का दिल से बे'हद शुक्रिया ! शाद-औ-आबाद रहें|
आदरणीय Samar kabeer साहेब ने जो सुझाव दिए हैं उसके अनुसार संशोधन कर दिए हैं |
आद0 गिरधारी सिंह गहलोत जी सादर अभिवादन। बढ़िया ग़ज़ल कही आपने, बधाई स्वीकार कीजिये। आद0 समर साहब ने कुछ सुझाव दिया है जो ग़ज़ल के सुधार में अत्यंत सहयोग करेगा। सादर
जनाब गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
कुछ बातें आपके संज्ञान में लाना चाहूँगा ।
'है शिकन का दरिया शबाब पर, हसीं रुख पे नक़्श-ओ-निगार है'
इस मिसरे में 'नक़्श-ओ-निगार' बहुवचन है ।
'तुझे हो न हो मुझे वस्ल की ,सभी याद लैल-ओ-नहार है'
इस मिसरे में 'लैल-ओ-नहार' बहुवचन है ।
'बड़ी तंग करती थी रोज-ओ-शब,मुझे ग़म भरी ये मुसीबतें'
इस मिसरे में 'रोज़-ओ-शब' बहुवचन है ।
'मुझे फ़ख़्र है कि तरीख में ,ज़रा गौर करना सभी 'तुरंत''
इस मिसरे में 'तरीख' ग़लत है,सहीह शब्द "तारीख़" है, ग़ौर करें ।
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