टुकड़ों में बटा आदमी
टुकड़ों की बात करता है ,
टुकड़ों को छोटे , और छोटे
टुकड़ों में तोड़ने की बात करता है।
टुकड़ों से अलग अलग बात करता है ,
आज इसकी कल उसकी बात करता है
पर टुकड़ों को जोड़ने से डरता है
और टुकड़ों के खुद जुड़ने से भी डरता है।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय मोहम्मद आरिफ जी ,आपकी सद्भवनाओं के लिए आभार , आपने अपनी रूचि की गहराई दिखाई। आपको बहुत बहुत धन्यवाद , सादर।
आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी ,आपकी सद्भवनाओं एवं हार्दिक बधाई के लिए आभार एवं धन्यवाद , सादर।
आदरणीय लक्षमण धामी ‘ मुसाफिर ’ जी , आपकी सद्भवनाओं एवं हार्दिक बधाई के लिए आभार एवं धन्यवाद , सादर।
जनाब डॉ.विजय शंकर जी आदाब,"टुकड़े" देखने और सुनने में बहुत मामूली शब्द है,लेकिन इस शब्द को इस्तेआरा बनाकर आपने उपयोगी बना दिया,बहुत ख़ूब वाह, इस शानदार प्रस्तुति पर दिल से ढेरों बधाई स्वीकार करें ।
आदरणीय विजय शंकर जी आदाब,
बहुत भी लाजवाब कविता । बस , इतना ही कहूँगा कि-
मेरा वजूद अगर देखना है
तो मुझे टुकड़ों में देखना
टुकड़ों में पाया हूँ
किसी का टुकड़ा हूँ
किसी का टुकड़ा खाता हूँ
किसी के टुकड़ों पर पलता हूँ
ग़रीबी की भट्टी में जलता हूँ
मेरी नमक हरामी और नमक हलाली भी
टुकड़ों पर पलती है
. . अब देखना यह कि वह
टुकड़ा कैसा है ?
हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
हार्दिक बधाई आदरणीय डॉ विजय शंकर जी।बेहतरीन गूढ़ संदेश देती प्रस्तुति।
आ0 डॉ विजय शंकर जी बहुत ही सुन्दर लिखा है आपने । हार्दिक बधाई ।
आ. भाई विजय जी, सादर अभिवादन । सुंदर कविता हुयी है । हार्दिक बधाई।
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