221 2122 221 2122
मुझसे ऐ जान-ए-जानाँ क्या हो गई ख़ता है
जो यक-ब-यक ही मुझसे तू हो गया ख़फ़ा है
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कुछ भी नहीं है शिकवा कुछ भी नहीं शिकायत
क़िस्मत में जो है मेरे वो मुझको मिल रहा है
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आंखों में नींद रुख़ पर गेसू बिखर रहे हैं
हिज्र-ए-सनम में शायद वो जागता रहा है
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शाख़-ए-शजर हैं सूखी मुरझा गई हैं कलियाँ
गुलशन हुआ है वीरां कैसा ग़ज़ब हुआ है
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इक पल में रूठ जाना इक पल में मान जाना
उसकी इसी अदा ने दीवाना कर दिया है
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जब है सज़ा सुनाई दार-ओ-रसन की हमको
फिर पूछते हो क्यूँ अब ख़्वाहिश हमारी क्या है
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तेरी ख़ुशी में ख़ुश हूँ ग़म में तिरे परेशाँ
मर्ज़ी है जो भी तेरी मेरी वही रज़ा है
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दार-ओ-रसन =सूली फाँसी
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आद0 सलीम रज़ा जी सादर अभिवादन। बढ़िया ग़ज़ल कही आपने, बहुत बहुत बधाई, शेष गुनिजनो की बातों का संज्ञान लीजियेगा।
खूबसूरत ग़ज़ल कही आदरणीय सलीम साहब..बधाई
मक़्ते का ऐब-ए-तनाफ़ुर भी निकालें ।
जनाब सलीम रज़ा साहिब आदाब,अच्छी ग़ज़ल है, बधाई स्वीकार करें ।
हुस्न-ए-मतला में ईता दोष है ।
मक़्ते में ऐब-ए-तनाफ़ुर और शुतरगुर्बा के दोष हैं ।
वाह जी वाह बहुत बढ़िया ग़ज़ल जी। बधाई स्वीकार करे जी।
दार ओ रसन का अर्थ बताये जी।
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