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आईना देख कर
हो गई बावरी
नैन रतनार से
देह भी मरमरी ||


कुछ कहें सुन्दरी
कुछ कहें है परी
सुन के ऐसा लगे
ज्यों बजी बंसरी ||


मस्त अंगड़ाइयाँ
उफ् अदा मदभरी
कुंतलों में बसी
थी घटा साँवरी ||


एक दिन क्या बताऊँ
मैं कैसी डरी
खत्म जैसे हुई
सारी जादूगरी ||


रूप की फुलझरी
कर गई मसखरी
पीत पड़ने लगी
पत्तियाँ सब हरी ||


झुर्रियाँ कह गईं
आज बातें खरी
आईना रह गई
मैं धरी की धरी ||

(मौलिक व अप्रकाशित)

अरुण कुमार निगम

आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

शम्भूश्री अपार्टमेंट, विजय नगर, जबलपुर (मध्यप्रदेश)

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 6, 2013 at 12:07am

इस व्यवस्था को जीवन कहते हैं ! .. :-))))

वाह !

सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 5, 2013 at 5:33pm

रूप की फुलझरी
कर गई मसखरी
पीत पड़ने लगी
पत्तियाँ सब हरी ||

 जीवन की यही सच्चाई है बहुत सुन्दर प्रस्तुति बहुत बहुत बधाई अरुण निगम जी 

Comment by अरुन 'अनन्त' on June 5, 2013 at 12:04pm

आदरणीय गुरुदेव श्री वाह आपकी यह कला भी मन मोह गई, छोटी छोटी पंक्तियाँ किन्तु भाव गंभीर कर रही हैं, क्या कहने सरलता और  सुन्दरता से सुशोभित लाजवाब लेखन हेतु हार्दिक बधाई स्वीकारें.

Comment by ram shiromani pathak on June 4, 2013 at 6:33pm

वाह वाह आदरणीय अरुण जी,सुन्दर पंक्तियां//हार्दिक बधाई 

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on June 4, 2013 at 4:58pm

वाह वाह आदरणीय सर जी सादर प्रणाम 

ग़ज़ब का लेखन 

सुन्दर सहज और शानदार 

टूटा फूटा हो भले, दर्पण बोले सांच 

चाटुकारी होय नहीं , चाहे आये आंच 

बधाई हो इस अद्भुत रचना हेतु 

Comment by विजय मिश्र on June 4, 2013 at 1:03pm
अरुणजी ,इस हृदयस्पर्शी प्रस्तुति के लिए बधाई -
"झुर्रियाँ कह गईं
आज बातें खरी
आईना रह गई
मैं धरी की धरी ||"--- कितनी सहजता से चिंतन केलिए विवश कर देते हैं .सुन्दर .
Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on June 4, 2013 at 12:35pm

सहज सुन्दर शब्द प्रेम-निर्झर की कल-कल में विभोर कर गये आदरणीय! श्रद्धेय आपकी लेखनी को नमन है! सादर,

Comment by रविकर on June 4, 2013 at 11:17am

 वाह वाह वाह-

शुभकामनायें आदरणीय-

 

आई आई सामने, कुदरत का आईन । 

आकर्षक है आईना, दीख रहा कवि दीन ॥

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 4, 2013 at 10:51am
आदरणीय..अरुण जी, बहुत खूब..बेहतरीन पंक्तियां,, क्या खूब आपने जीवन की वास्तविकता बतलाई है.."मस्त अंगड़ाईयां उफ् अदा मदभरी, कुंतलों में बसी थी घटा साँवरी! ....हार्दिक बधाई
Comment by MAHIMA SHREE on June 3, 2013 at 11:11pm

रूप की फुलझरी
कर गई मसखरी
पीत पड़ने लगी
पत्तियाँ सब हरी...

वाह !! बहुत ही सुंदर प्रस्तुति ..

कृपया ध्यान दे...

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