जाते हो बाजार पिया तो
दलिया ले आना
आलू, प्याज, टमाटर
थोड़ी धनिया ले आना
आग लगी है सब्जी में
फिर भी किसान भूखा
बेच दलालों को सब
खुद खाता रूखा-सूखा
यूँं तो नहीं ज़रूरत हमको
लेकिन फिर भी तुम
बेच रही हो बथुआ कोई बुढ़िया
ले आना
जैसे-जैसे जीवन कठिन हुआ
मजलूमों का
वैसे-वैसे जन्नत का सपना भी
खूब बिका
मन का दर्द न मिट पायेगा
पर तन की ख़ातिर
थोड़ा हरा पुदिना
थोड़ी अँबिया ले आना
धर्म जीतता रहा सदा से
फिर से जीत गया
हारा है इंसान हमेशा
फिर से हार गया
दफ़्तर से थककर आते हो
छोड़ो यह सब तुम
याद रहे तो
इक साबुन की टिकिया ले आना
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
इस सुंदर प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई स्वीकार करें, आदरणीय धर्मेंद्र जी।
सादर।
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय TEJ VEER SINGH जी
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय Samar kabeer जी
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय Dr. Vijai Shanker जी
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय indravidyavachaspatitiwari जी
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी
आ. भाई धर्मेन्द्र जी, बेहतरीन नवगीत हुआ है । हार्दिक बधाई।
मंहगाई पर कटाक्ष करने के लिए आपको बधाई। इतनी सुंदर कविता से मन प्रसन्न हो गया।
आदरणीय धर्मेंद्र कुमार जी , बधाई , इस सुन्दर प्रस्तुति पर। सादर।
जनाब धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी आदाब,बहुत अच्छा नवगीत लिखा आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
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