आदरणीय साथिओ,
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आदरणीय कनक हरलालका जी आप की प्रतिक्रिया मेरी अमूल्य धरोहर है ।इस प्रतिक्रिया के लिए आप का हार्दिक आभार व्यक्त करता हूं।
आधुनिकता की बलि चढते रिश्तों की मार्मिक लघुकथा। हार्दिक बधाई आदरणीय ओमप्रकाश क्षत्रीय जी। धर्मपुत्र का कोई नाम देकर संबोधन किया जाता तो अधिक सहज लगता मेरे विचार से।
आदरणीय प्रतिभा पांडे जी आप का कहना बिल्कुल सही और दुरुस्त है ।मगर मेरी यह सोच थी कि नाम नहीं देने से लघुकथा का दायरा व्यापक हो जाएगा। जबकि नाम देने दायरा सिमट जाएगा । इस बेहतरीन सुझाव के लिए हार्दिक आभार आप का।
आदरणीय ओमप्रकाश जी, आधुनिकता के मिथ्या अहंकार पर चोट करती अत्यंत ही मार्मिक लघुकथा ...बहुत बहुत बधाई..
आदरणीय गंगा धर शर्मा हिंदुस्तान जी आप की अमूल्य प्रतिक्रिया के लिए आप का हार्दिक आभार आदरणीय ।
बहुत ही मार्मिक और संवेदनशील रचना, बधाई स्वीकार कीजिएगा आदरणीय ओमप्रकाश सरजी।
गंतव्य
पैकेट बंद गोस्त वगैरह का आहार कर पुतले नारे उछालने की आजादी वाले देश में फिर से मुर्दाबाद....मुर्दाबाद.....देश का राजा मुर्दाबाद का नारा बुलंद करने लगे। पुलिस - प्रशासन कई दिनों से अवरुद्ध महानगर के उस मार्ग को न्यायालय के आदेशानुसार खुलवाने के लिए प्रयासरत थे,पर वही ढाक के तीन पात जैसी स्थिति थी।कोई सुनने समझने को तैयार नहीं था। हां,वहां औरतों और बच्चों को आगे रख लिया गया था।
जब मुर्दाबाद ...मुर्दाबाद के नारे बुलंद होते तो कभी कभार लोगों का हुजूम हाथ में तिरंगा लिए जिंदाबाद..जिंदाबाद.....नया कानून जिंदाबाद .... जैसे नारे बुलंद करता हुए आगे बढ़ जाता। पर कोई मार्ग आदि नहीं छेंके जाते। ये लोग जनता की सहूलियतों का ध्यान रखते हुए प्रदर्शन करते।
अकस्मात पुतलों वाले झुंड के पास हवा सनसनाई,' अच्छा है।बंदों को भरपेट बढ़िया खाना तो मिल रहा है। बांदिया भी तो हैं।बंदिनी जैसी थीं।अब कमा - खा रही हैं। खसम लोग बच्चे संभाल रहे हैं।'
' क्या बकती है?' किसी ने कोहनी मारी।
' कौन है तू? क्यूं मुझे छेड़ा तूने?'
' तू हवा है,मुझे पता है।जरा जोर से बहो ताकि इनकी कलई पूरी तरह उतर जाए। बहरे भी हैं ये सब।शायद तेरी झनझनाहट इन्हें सुनने को मजबूर करे।'
' कलई तो चढ़ ती उतरती रहती है।कभी कोई,तो कभी कोई चढ़ेगी।'
' ठीक है।पर शायद नई कलई में इनके अंदर मैं भी अवतरित हो जाऊं।'
' कौन है तू?' हवा ने फिर सवाल किया।
' संवेदना हूं सखि!अहसास पैदा करती हूं मैं।'
' समझ गई री,में समझ गई।पर ये तो बहरे हैं। सं वे दित भी शायद ही होते होंगे अपनी मिट्टी के लिए।जोड़ नहीं,तोड़ के मुखातिब हैं ये सब।जमीन नहीं आसमां को पकड़ने चले हैं।'
' ठीक है।पर तेरे जरा सा नम होने से इन्हें झुरझुरी होने लगी है।कांपने लगे हैं ये सब।
' सो तो है।'
' बस जरा जोर लगा दे रानी! इनके अंदर के कंपन से मुझे उम्मीद बंधी है।पुरानी कलई पूर्णतया झड़ जाए, तो नई वाली में मैं समा जाऊं और तेरे द्वारा उत्पन्न किए गए कंपन से दांत किटकिटा येंगे, तो किंचित इनकी श्रवण शक्ति वापिस आ जाए।'
' एवमस्तु ' कह हवा तेज गति से बहने लगी।संवेदना अपना गंतव्य ढूंढने निकल गई।
"मौलिक व अप्रकाशित"
आ. भाई मनन जी, सादर अभिवादन । वर्तमान परिप्रक्ष में समसामयिक और बेहतरीन कथा हुई है । हार्दिक बधाई ।
आपका आभार आदरणीय।
वर्तमान परिपेक्ष्य में बढ़िया लिखने का प्रयास किया है आपने लेकिन यह सिक्के का एक ही पहलू दर्शाता है. बहरहाल बधाई इस सम सामयिक रचना के लिए आ मनन कुमार सिंह जी
आपका आभार आदरणीय।
अभी तो अप्रबल पक्ष यानी अज्ञता वाला पक्ष ही प्रबल हो गया है।
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