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आदरणीय बागी सर, सादर नमन! विषयगत अच्छी रचना प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई स्वीकारें।
आदरणीय सतविंदर जी, लघुकथा आपको पसंद आयी, सृजन सफल हुआ. आभार आपका।
संस्कार भी एक तरह की धरोहर ही होते हैं जो प्राय: एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित किए जाते हैं. इस लिहाज़ से इस लघुकथा का शीर्षक कमाल का हुआ है. लघुकथा भी एकदम कसी हुई और प्रदत्त विषय को पूरी तरह परिभाषित कर रही है. एतदर्थ मेरी तरफ से ढेरों-ढेर बधाई प्रेषित है भाई गणेश बाग़ी जी.
सराहना हेतु आभार आदरणीय गुरुदेव योगराज जी, आपको पढ़ पढ़ ही लघुकथा सीखी है, आभार, आशीर्वाद बानी रहे.
जबरदस्त कथा के लिए हार्दिक बधाई आ. गणेश जी बागी जी। इसी संवेदना की आज समस्त समाज को आवश्यकता हैं .
आदरणीया अर्चना त्रिपाठी जी, लघुकथा पर आपकी उपस्थिति एवं सराहना हेतु मैं दिल से आभार व्यक्त करता हूँ.
मेरा सदैव यह मानना रहा है कि समसामयिक विषयों पर लिखते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि सामयिक प्रयोजन सिद्ध होने के बाद भी रचना की प्रासंगिकता बनी रहे। अंतिम दो पंक्तियों से पहले यह कथा क्षणिक मनोउद्गार जैसी लगी परंतु दादाजी द्वारा अपने दादाजी को याद करते हुए संस्कारों की धरोहर वाले कथ्य ने लघुकथा को ऊँचाइयों पर पहुँचा दिया। नख से शिख तक कसी इस लघुकथा का शीर्षक चयन भी एकदम सटीक। हालांकि /दादा को याद कर मन-ही-मन कह रहे थे/ अवांछाित लेखकीय प्रवेश का संशय उत्पन्न कर रहा है। बहरहाल! शानदार प्रस्तुति के लिए शुभकामनाऍं स्वीकार करें।
//मेरा सदैव यह मानना रहा है कि समसामयिक विषयों पर लिखते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि सामयिक प्रयोजन सिद्ध होने के बाद भी रचना की प्रासंगिकता बनी रहे।// पूर्णतः सहमत।
प्रिय महेंद्र कुमार जी, यह मेरा भी मानना है.
प्रिय रवि भाई, सबसे पहले तो लघुकथा पर उपस्थिति हेतु बहुत बहुत आभार, लॉक डाउन का माहौल क्रिएट करते समय मुझे बिलकुल यह ध्यान था कि कल यह लघुकथा अप्रासंगिक न लगे, किन्तु आप देख रहे होंगे कि कल भी यह लघुकथा प्रासंगिक रहेगी। दूसरी बात यदि दादा जी वाली कथ्य हटा दे तो इस लघुकथा का अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा । पुनः आपका आभार।
वर्तमान मुश्किल क्षणों में आपके द्वारा प्रतिपादित धरोहर समयानुकूल एवं विषयानुकूल लगी,बधाइयां आ. बागीजी।
हार्दिक बधाई आदरणीय गणेश जी बागी जी।लाज़वाब लघुकथा।अपनी आने वाली पीढ़ी को अच्छे संस्कार देने से बढ़कर कोई और धरोहर हो ही नहीं सकती। अति सुंदर।
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