आदरणीय साथिओ,
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हार्दिक आभार सर ..।अगर त्रुटियों का उल्लेख कर दें तो उन्हें दूर कर बेहतर लघुकथा लिखने के लिए सीख मिलेगी ..।
आदरेया, क्षमा करें, यदि आपकी प्रस्तुति को लेकर मेरी समीक्षा से यदि आप को कोई कष्ट पहूँचा है ! एक ईमानदार वक्तव्य के लिए स्पष्टीकरण मेरा दायित्व है, एत्द्वारा उसे पूरा कर रहा हूँ !
कनक जी, लघुकथा किसी क्षण विशेष में यथार्थ / सत्य का बोध है,इससे अधिक कुछ नहीं! और, उस क्षण विशेष सत्य के उद्घाटन का माध्यम / घटना का सूक्ष्म स्वरूप ही लघु कथा होती है ! अब आप स्वय॔ अपनी प्रस्तुति को लघुकथा के स्वरूप के संदर्भ में जाँच परख कर सकती हैं , सादर !
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आदाब। बहुत दिनों बाद आपकी सुंदर लेखनी से हम धन्य हुए। किन्नर विमर्श पर बहुत ही मार्मिक प्रवाहमय लघुकथा। हार्दिक बधाई जनाब विजयानंद सिंह जी। बड़ा लम्बा कालखण्ड लेकर चले हैं आप बख़ूबी। भाषा शैली भी अच्छी लगी। कहानीनुमा लगती है। लेकिन भाती है। सम्प्रेषण अच्छा है। शीर्षक बढ़िया है।
शेष गुरुजन बता सकेंगे।
बेहतरीन लघुकथा आदरणीय..।किन्नर भी केवल थोड़ी सी त्रुटि के कारण ममत्व जैसे गुण से वंचित नहीं रह सकते..।
आ. भाई विजयानन्द जी, बहुत सुन्दर कथा हुई है । हार्दिक बधाई ।
हार्दिक बधाई विजयानंद जी। लाजवाब लघुकथा।
आदरणीय विजयानन्द जी
मार्मिक रचना के लिये बधाई।
कहानी के तौर पर यदि देखी जाय तो अच्छी प्रस्तुति है किन्तु लघुकथा की कसौटी पर मुझे तनिक हिचक हो रही है, आयोजन में आपकी उपस्थिति हेतु आभार आदरणीय।
आपने तो पुरी कहानी कह दी . सम्प्रेषण अच्छा लगा
साख
मीतू भाई नन्हीं पोती से कह रहे थे: मैं तब दसवीं कक्षा में था। क्लास में सबसे आगेवाली बाईं तरफ की बेंच पर हम तीन बैठते थे,बस हम तीन ही; मैं,अरुण और केदार। दाईं तरफ की अगली बेंच पर लड़कियां बैठती थीं। पीछे की बैंचों पर चार -चार या कभी -कभार छात्रों की उपस्थिति ज्यादा होने पर पांच -पांच लड़के भी बैठते।
और दिनों की तरह ही उस दिन भी पीछे की बेंच वालों से पाठ सुनाने को हेडमास्टर जी बोले।कोई कुछ सुनाता,फिर ऐं -बें करने लगता।याद हो तब न धड़ल्ले से सुनाए। पिटता। ओह -हाय करता बैठ जाता।यह सिलसिला हमारी बेंच तक आ पहुंचा।और दिनों की तरह में भी अंदर से मजबूत नहीं महसूस कर रहा था।पहले केदार,फिर अरुण की बारी आई। वे हल्का -फुल्का अटके। उन्हें हेडमास्टर जी की छड़ी की फटकारें मिलीं,हल्की फुल्की।आगे आते आते उनकी बाजुओं का जोर कम हो चला था।
अब मेरी बारी थी। सोचा कि आज रिकॉर्ड टूट ही जायेगा। ।पर यह क्या,हेडमास्टर जी अपनी मेज की तरफ बढ़ गए।मैंने सोचा,शायद वहीं से मुझसे सवाल होंगे।पर नहीं हुए। मैं बाल बाल बचा।'
'क्यों बाबाजी?'नन्हीं ने सवाल किया।
'क्योंकि उस दिन मुझे पाठ याद नहीं था।'
'फिर बचे कैसे?आपसे सवाल क्यों नहीं हुए?'
'इसलिए कि मुझे हर रोज पाठ याद होता था। उस दिन भी हेडमास्टर जी को लगा होगा याद होगा ही।समय बचे।'
'अच्छा,यह बात है। हमेशा पाठ याद करनेवाले कभी याद न होने पर भी बच जाते हैं।'नन्हीं आंखों नचाकर बोली।
'हां नन्हीं,यही तो साख होती है।'
'मौलिक व अप्रकाशित '
आ. भाई मनन जी, अच्छी कथा हुई है । हार्दिक बधाई ।
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